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भावना का बुद्धि के साथ संघर्ष आवश्यक है । यह संघर्ष बुद्धि के आधिपत्य को अधिक गौरवान्वित करता है। वही बुद्धि श्रेष्ठ है जो सुचारु रूप से भावनाओं को उस मार्ग की ओर ले जाती है जो नैतिक नियम के अनुरूप है। मनुष्य का स्वभाव अनेक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और भावनाओं का जन्मस्थल है। इस स्वभाव में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पूर्ण रूप से बुरा अतएव त्याज्य हो । अतः प्रवृत्तियाँ अपने-आपमें बुरी नहीं हैं, किन्तु जब वे अपनी सीमा का उल्लंघन करने लगती हैं तब वे बुरी कहलाती हैं। भावनाओं का हनन करना बुद्धि का लक्ष्य नहीं है बल्कि उनकी यथोचित तृप्ति तथा उन्नयन द्वारा उन्हें नैतिक रूप देकर ध्येय की प्राप्ति में सहायक बनाना ही बुद्धि का काम है जिससे विभिन्न आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, कलात्मक आदि प्रवृत्तियों में संगति और सन्तुलन स्थापित कर मनुष्य व्यक्तित्व के विकास और परिपूर्णता को प्राप्त कर सके । व्यक्तित्व की पूर्णता एवं आत्म-कल्याण के आकांक्षी पूर्णतावादियों ने आत्म-सन्तोष को आत्म-कल्याण का सहवर्ती माना है। आत्म-सन्तोष से उनका अभिप्राय उस सन्तोष से है जो प्रात्मा के दोनों अंगों-बद्धि और भावना-को सन्तोष दे सके । जब सम्पूर्ण आत्मा अपनी परिपूर्णता को प्राप्त करती है तभी उसे सन्तोष एवं प्रानन्द मिलता है।
प्रात्मा और समाज-यह सभी मानेंगे कि नैतिक कर्म की सत्यता एवं उसका शुभ-अशुभ होना इस पर निर्भर है कि वह वांछित ध्येय एवं परम शुभ के अनुरूप है या नहीं। अथवा नैतिकता के मानदण्ड की धारणा ध्येय की धारणा पर निर्भर है। ध्येय की धारणा पर आधारित नतिक आदर्श आत्मिक आदर्श है। यह वह आदर्श है जो प्रात्मा को सन्तुष्ट करता है। ध्येय क्या है ? ध्येय, जैसा कि कह चुके हैं, आत्म-सन्तोष है। आत्मा का रूप न तो केवल ऐन्द्रियिक है और न केवल बौद्धिक । ब्रेडले ने आत्मा के इस स्वरूप को स्वीकार करते हुए कहा कि आत्मा का अपने पूर्ण रूप में सन्तुष्ट होना, अर्थात् सम्पूर्ण आत्मा का सन्तोष ही, आत्म-सन्तोष है। प्रात्मा के स्वरूप को भलीभाँति समझने एवं आत्मसन्तोष का व्यापक ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि क्या आत्मा एक असम्बद्ध इकाई के रूप में है अथवा वह समाज का एक अविभाज्य अंश है। नंतिक निर्णय का स्वरूप बतलाता है कि नैतिक निर्णय आत्मा के उस आचरण पर दिया जाता है जो सामाजिक है । मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व को किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक सिद्धान्त मानता है। पूर्णतावादियों ने इस सत्य को समझाने के लिए तत्त्वदर्शन की सहायता ली है। उन्होंने अपने
पूर्णतावाद | २६७
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