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बटलर के समय में लोगों की नैतिक और धार्मिक प्रवत्ति शिथिल हो चकी थी। ईसाई धर्म की सुप्तावस्था के ज्ञान ने उसे दुःखी कर दिया और उसने अनायास ही ऐसे तर्क प्रस्तुत किये जो ईसाई धर्म के समर्थक हैं । अपने समय के अंग्रेज पादरियों के अनुरूप बटलर में एक मधुर विवेचन-बुद्धि तथा ठोस सामान्यबोध है। काण्ट के और उसके सिद्धान्त में सादृश्य मिलता है किन्तु साथ ही भेद भी है। काण्ट का नैतिक दर्शन एक महान तत्त्वज्ञानी, तर्कप्रिय तथा कट्टर नीतिवादी का दर्शन है और बटलर का एक पादरी का । उपर्युक्त भेद होने पर भी बटलर का नैतिक दर्शन स्पष्टता और सन्तुलन से अछूता नहीं है। उसने उन तथ्यों और प्रवृत्तियों का वर्णन स्पष्ट और बोधगम्य भाषा में किया है जिनसे हम सभी परिचित हैं।
परम स्वार्थवाद का मनोवैज्ञानिक खण्डन-मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति को नि:तिक और अनियन्त्रित मानकर हॉब्स ने यह समझाया कि मनुष्य के सुख, शान्ति, जीवन-संरक्षण एवं उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नैतिक नियम साधन हैं और इस अर्थ में वे अनिवार्य हैं ! नैतिक नियम के उदगम का इतिहास बतलाता है कि वे बौद्धिक प्राणिमों के लिए आवश्यक अवश्य हैं पर साथ ही वे परम्परागत होने से समझौते पर निर्भर हैं। बटलर के समय में इस बात का निराकरण करना एक चलन-सा हो गया था कि निःस्वार्थ कर्म सम्भव नहीं हैं । बटलर ने ऐसी धारणा एवं हॉब्स के परम स्वार्थवाद के मनोवैज्ञानिक आधार पर सन्देह किया। उसने एक मनोवैज्ञानिक नीतिज्ञ की भाँति उन सब धारणाओं और सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला जिनके अनुरूप सम्भ्रान्त लोग अनुभव, कर्म और निर्णय करते हैं और यह समझाया कि स्वार्थवादी धारणाओं के मूल में मनोवैज्ञानिक अज्ञान है। अन्य सहजज्ञानवादियों ने भी मानव-स्वभाव तथा मानव-समाज का विश्लेषण करके हॉब्स के परम स्वार्थवाद को अस्वाभाविक कहा । उनके अनुसार हमें अन्तर्बोध के आदेश का पालन करना चाहिए क्योंकि उसका अधिकार स्वाभाविक है। किन्तु अन्तर्बोध के स्वाभाविक अधिकार को वे बटलर की भाँति प्रभावोत्पादक तथा सूक्ष्म युक्तियाँ देकर नहीं समझाते हैं। स्वार्थमूलक सुखवाद की आलोचना करते हुए वह समझाता है कि मानव-स्वभाव व्यवस्थित पद्धति या आवयविक समग्रता है। इस समग्रता में अनेक प्रवृत्तियाँ हैं, जिनके आधार पर वह मूलगत सुखवादी धारणा के विपरीत कहता है कि मनुष्य-स्वभाव में सामाजिक और वैयक्तिक दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ मिलती हैं और आत्महित के लिए प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखना अनिवार्य है । यहाँ पर
सहजज्ञानवाद (परिशेष) / २६१
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