________________
लेना चाहिए। कर्मों के भावी परिणामों को समझने के लिए अथवा सुखप्रद कर्मों को अपनाने के लिए सामान्य बोध, कल्पना और अनुमान की आवश्यकता है । अनुभव के आधार पर उन कर्मों की गणना और अनुमान कर लेना चाहिए जो कि सुखप्रद और सम्पूर्ण जीवन के सुख की प्राप्ति में सहायक हैं । परार्थसुखवाद ने 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' को सदाचार का मानदण्ड एवं नैतिक मानदण्ड माना है। सहानुभूति तथा अन्य उपाजित परार्थ भावनाएं परार्थ कर्म के लिए मनुष्य को प्रेरित करती हैं अथवा विचार-साहचर्य तथा रुचि-परिवर्तन के नियमों के कारण व्यक्ति परार्थ भावनाओं को अपने में पाता है। जब बोध, कल्पना तथा अनुमान से संयुक्त होकर सहानुभूति ज्ञान प्राप्त करती है तो वही अन्तर्बोध का काम करती है । अथवा प्रत्येक व्यक्ति का अन्तर्बोध उसके जीवन के अनुभवों और परिस्थितियों की उपज है । इसी के कारण व्यक्ति कर्तव्य करने के लिए प्रेरित होता है। विकासवादियों ने अन्तर्बोध को वंशानुगत गुण के रूप में समझा है । उनका कहना है कि अन्तर्बोध एक सामाजिक सहजप्रवृत्ति या पूर्वजों का संचित अनुभव है जिसे हम वंशानुगत गुण के रूप में प्राप्त करते हैं । अत: व्यक्ति में यह सहजात है यद्यपि पूर्वजों ने इसे अनुभव से उपाजित किया है।
प्रचलित अर्थ-प्रचलित अर्थ में अन्तर्बोध नैतिक निर्णय की वह शक्ति है जो यह बतलाती है कि कौन-से कर्म तथा कौन-सी प्रेरणाएँ शुभ हैं। इस अन्तर्बोध का न तो सामान्य नियमों से ही प्रत्यक्ष सम्बन्ध है और न उन निष्कर्षों से जिनका कि सामान्य नियमों से निगमन करते हैं । 'अपने अन्तर्बोध पर विश्वास रखो', 'अपने अन्तर्बोध के अनुरूप कर्म करो', 'अपने अन्तर्बोध को समझो,' प्रादि वाक्य इस बात के प्रमाण हैं कि व्यक्ति का अन्तर्बोध अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। वह उसके कर्मों को निर्धारित करता है। विशिष्ट कर्तव्यों को करने का आदेश देता है। अन्तर्बोध की ऐसी धारणा सरल, प्रत्यक्ष सहजज्ञान को महत्त्व देती है और साथ ही वह इस विश्वास पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति का अन्तर्बोध उसे उचित मार्ग की ओर ले जाता है । इसलिए व्यक्ति को अन्तर्बोध के अनुसार कर्म करने चाहिए और नियमों के फेर में नहीं पड़ना चाहिए। नियमों का जाल नैतिक विकास में अवरोधक सिद्ध हो सकता है। तर्क और चिन्तन भी व्यर्थ हैं। इनके द्वारा किसी विशिष्ट परिणाम पर पहुंचकर उसे अपनाना अनुचित है क्योंकि यह सहजज्ञान का तिरस्कार करना है । यह दृष्टिकोणं अति सहजज्ञानवादी है । ऐसी स्थिति में न तो सामान्य नियमों
सहजज्ञानवाद. २४१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org