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सिद्धान्त समझाया । दूसरों के प्रति हमारा वैसा ही आचरण होना चाहिए जैसा कि हम दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं । निष्पक्षता या समानता का ऐसा सिद्धान्त हॉब्स के परम स्वार्थवाद की असत्यता सिद्ध करता है। क्लार्क ने समानता को बहुत महत्त्व दिया है और उस आधार पर समझाया है कि सत्य सार्वभौम और वस्तुगत है, इसका अस्तित्व किसी के भी स्वतन्त्र संकल्प पर निर्भर नहीं है। काण्ट ने 'प्रत्येक को साध्य मानो' कहकर समानता की धारणा को ही पूर्ण और स्पष्ट रूप से व्यक्त किया। जैसा कि हम देख चके हैं, उपयोगितावादियों ने अपना समानता का यह सिद्धान्त कि 'प्रत्येक व्यक्ति की गणना एक है' सहजज्ञानवादियों से ही लिया।
व्यावहारिक और चिन्तनबुद्धि का क्षेत्र–बाह्य जगत् से रूपक लेने के कारण बुद्धिवादी, सहजज्ञानवादी विशेषकर कडवर्थ और क्लार्क, एक भूल और करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि नैतिक जगत में व्यावहारिक बुद्धि और चिन्तबुद्धि भिन्न हैं। वे इन दोनों को एक ही मान लेते हैं । न्याय, संयम आदि नैतिक आदर्शों को और कार्य-कारण, परिमाण आदि बाह्य जगत् की धारणाओं को समान रूप से बुद्धि का विषय मान लेते हैं। काण्ट ने सहजज्ञानवादियों की इस भूल को दूर किया । कडवर्थ और क्लार्क के साथ यह स्वीकार करते हुए कि कर्मों का औचित्य वस्तुगत है और इसलिए नैतिक नियम बुद्धि के विषय हैं न कि भावना के, जो कि आत्मगत और वैयक्तिक है, वह उनके सिद्धान्त को अधिक विकसित करता है। जहाँ तक बुद्धि के दोनों रूपों (व्यावहारिक और चिन्तन-सम्बन्धी) का प्रश्न है वे सीमाओं से घिरे हुए व्यक्ति के लिए भिन्न हैं, यद्यपि पूर्ण ज्ञान इनमें ऐक्य स्थापित करेगा । अतः मानव-जीवन की व्याख्या करते हुए काण्ट कहता है कि चिन्तनबुद्धि के द्वारा उन सत्यों-ईश्वर, आत्मा और संकल्प-स्वातन्त्र्य-को सिद्ध नहीं किया जा सकता, जो व्यावहारिक बुद्धि की आवश्यक मान्यताएँ हैं।
गणित और पदार्थविज्ञान के रूप की सीमाएँ—गणित और पदार्थविज्ञान के रूप को क्लार्क पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेता है और इस कारण विकासवादी सूखवादियों की भाँति यह भूल जाता है कि नीतिशास्त्र आदर्श विधायक सिद्धान्त है । वह यह जानना चाहता है कि हमें क्या करना चाहिए। भौतिक नियम हमें केवल तथ्य का ज्ञान देते हैं और क्या है' के स्वरूप को समझाते हैं । क्लार्क के अनुसार भौतिक नियम जगत् की प्रत्येक वस्तु को नियमों के अधीन बतलाते हैं। कर्म के औचित्य-अनौचित्य को भी हम नियम के प्राधार
२५० / नीतिशास्त्र
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