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नैतिक समस्या का स्पष्ट समाधान प्राप्त नहीं होता । एक ही व्यक्ति के अन्तर्बोध की विभिन्न ध्वनियों में समानता नहीं मिल पाती है । जब वह समान परिस्थितियों के विभिन्न कालों के अपने अन्तर्बोध को समझने का प्रयास करता है तो उसे उसमें संगति नहीं मिलती है । दो समान योग्यतावाले नैतिक प्राणियों के अन्तर्बोध में भी विरोध दीखता है । जिस कर्म की एक सराहना करता है उसे दूसरा हेय कह देता है । ये विरोध, ये असंगतियाँ तथा असमानताएँ यह बतलाती हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में जो नैतिक निर्णय की वैयक्तिक एवं विशिष्ट शक्ति मिलती है उसे हम प्रामाणिक नहीं कह सकते हैं । उनका अन्तर्बोध अधिकतर वैयक्तिक सीमाओं, संकीर्ण स्वार्थी तथा पूर्वग्रहों से दूषित हो जाता है । जिसे हम सहजबोध एवं अन्तर्बोध कहते हैं वह वास्तव में व्यक्ति का अपना स्वार्थ, परम्परागत विचार अथवा अन्धविश्वास हो सकता है । अन्तar को प्रामाणिकता देने के लिए और सन्देह से मुक्त करने के लिए सामान्य नियमों का प्रश्रय लेना उचित है तथा सुव्यवस्थित चिन्तन द्वारा सर्वमान्य परिणामों पर पहुँचना अनिवार्य है । अन्तर्बोध के नाम पर किसी भी व्यक्ति के नैतिक बोध को स्वीकार करना अनुचित है । ऐसे अन्तर्बोध को महत्त्व देना उस वैयक्तिक चेतना को महत्त्व देना है जो व्यक्ति की औचित्य की धारणा अथवा वैयक्तिक सदाचार के मानदण्ड के अनुरूप कर्म को उचित और प्रतिकूल कर्म को अनुचित कहती है । इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि यदि व्यक्ति की प्रचित्य की धारणा भ्रान्तिपूर्ण है तो उसके अन्तर्बोध के निर्णय भी भ्रान्तिपूर्ण होंगे अथवा उसका अन्तर्बोध गधे और सुकरात, साधु और असाधु, चोर और सन्त दोनों में से किसी का भी हो सकता है । अधिकांश व्यक्तियों के आचरण का मानदण्ड वैयक्तिक, आत्मगत और संकीर्ण होता है । उनका चिन्तन उस निष्पक्षता, तटस्थता, एकरूपता और व्यापकता को नहीं अपना पाता जो उन्हें वस्तुगत तथा सार्वभौम मानदण्ड का दिग्दर्शन करा सके । यही कारण है कि अनेक व्यक्ति अन्तर्बोध के प्रति सचेत होने पर भी अपने त्रुटिपूर्ण सदाचार के मानदण्ड के कारण अनैतिक आचरण को दृढ़तापूर्वक अपना लेते हैं । वास्तव में ऐसे ही व्यक्ति उन्मत्त आचरण करते हैं । सहजज्ञानवाद की प्रणालियों ने इस दोष से प्रन्तर्बोध को मुक्त करने का प्रयास किया । उन्होंने अन्तर्बोध के सार्वभौम रूप को समझाने का प्रयास किया ।
सहजज्ञानवाद के अनुसार अन्तर्बोध का अर्थ – सहजज्ञानवाद के अनुसार अन्तर्बोध ही नैतिक शक्ति है । वह कर्मों के प्रौचित्य अनौचित्य का प्रत्यक्ष ज्ञान
सहजज्ञानवाद / २४३
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