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आत्मा का संकल्प वतलाता है कि क्या करना चाहिए। इच्छाओं से युक्त अात्मा सुख की खोज करती है। किन्तु नैतिक आत्मा इच्छाओं का विरोध करती है अथवा कर्तव्य का मार्ग अनिच्छा का मार्ग है । मनोविज्ञान बतलाता है कि यह भ्रामक है। कर्तव्य के मार्ग का स्वेच्छा से पालन किया जाता है। संवेदनशील प्रात्मा इस मार्ग को देती है। काण्ट का कहना था कि इच्छाएँ सुख के लिए होती हैं और उनकी तृप्ति मनुष्य को प्रात्म-सुख देती है। किन्तु सब प्रवृत्तियाँ सुख के लिए नहीं होती। इच्छाओं को स्वार्थी मानकर वह अनुभवात्मक वस्तुवाद से दूर हो गया है। इच्छाओं के सम्मुख एक ध्येय होता है और जब उसकी प्राप्ति हो जाती है तो व्यक्ति को यह सोचकर सन्तोष प्राप्त होता है कि 'मेरी इच्छा तृप्त हुई। उसकी इच्छा का ध्येय कुछ भी हो सकता है, आत्म-कल्याण अथवा पर-कल्याण दोनों ही हो सकते हैं । काण्ट ने नैतिक प्रेरणा के अतिरिक्त अन्य प्रेरणाओं को स्वार्थी कहकर उन्हें अनैतिक कह दिया । यहाँ पर उसने सुखवादियों के दृष्टिकोण को अपनाया है। उन्हीं के समान यह माना है कि इच्छा का एकमात्र विषय सुख है। __एकमात्र प्रेरणा को महत्त्व देना अनुचित है-काण्ट के अनुसार वही कर्म नैतिक है जो शुभ प्रेरणा से किया गया है। परिणाम से नैतिकता का कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका कहना है कि घोखा देना पाप है। यदि किसी का जीवन उसके होनेवाले हत्यारे को धोखा देकर बच सकता हो तो भी धोखा नहीं देना चाहिए । काण्ट की ऐसी विशुद्ध नैतिकता (Moral Purism) कहाँ तक मान्य है, कहना कठिन है। उसने सम्पूर्ण परिस्थिति को नैतिक दृष्टि से महत्त्व नहीं दिया, यह उसकी भूल है। यह सम्भव हो सकता है कि हत्यारे को पाप करने से रोकने पर उसमें कोई महान् परिवर्तन आ जाये और वह नैतिक आचरण को अपना ले। प्रात्म-प्रबुद्ध व्यक्ति जब कर्म करता है तो वह सम्पूर्ण परिस्थिति के बारे में सचेत रहता है। वह अपने कर्म के परिणाम को भरसक समझने की कोशिश करता है। वह जानता है कि उसका प्रभाव दूसरों पर तथा स्वयं उस पर क्या पड़ेगा। प्रेरणा से किया हुआ कर्म साभिप्राय है। प्रेरणा को समझने के लिए परिणाम को समझना अनिवार्य है । डाक्टर के लिए यह आवश्यक है कि जब रोगी को वह दवाई देता है तो यह समझ ले कि वह रोगी के लिए कैसी होगी। कर्म अपने-आपमें नैतिक नहीं होता। वह प्रेरणा और परिणाम के सम्बन्ध में ही शुभ अथवा अशुभ है।
काण्ट के कठोरतावाद का व्यावहारिक मूल्य-काण्ट यह भली-भाँति
बुद्धिपरतावाद (परिशेष) | २३१
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