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सहजज्ञानवाद
सहजज्ञानवाद और अन्तर्बोध
प्रवेश - नैतिक निर्णय का आधार क्या है ? कर्म के औचित्य अनौचित्य को मापने के लिए हम किस मानदण्ड को स्वीकार करते हैं ? कर्तव्य को कैसे समझते हैं ? ··· आदि प्रश्नों का उत्तर विभिन्न प्रकार से दिया जा सकता है । एक वर्ग उन लोगों का है जो रूढ़िग्रस्त तथा प्राचीन परिपाटी के उपासक हैं । उन लोगों के अनुसार नैतिकता बाह्य नियमों का अनुवर्तनमात्र है । दूसरे वर्गों में वे हैं जो उपयोगितावाद के आधार पर कर्मों का मूल्यांकन करते हैं । उपयोगिता, साध्य और परिणाम की तुलना में ही कर्म को उचित अथवा अनुचित कहते हैं । पुनः तीसरे वर्ग के अन्तर्गत वे लोग आते हैं जो कर्म को अपने आप में शुभ अथवा अशुभ मानते हैं । इस भाँति यदि हम विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन करते जायें तो हमें कर्मों का मूल्यांकन करने के लिए अनेक दृष्टिकोण मिलेंगे । वास्तव में उन दृष्टिकोणों के मूल में नैतिकता की दो प्रकार की धारणाएँ हैं : नैतिकता शाश्वत, अद्वितीय तथा निरपेक्ष है और नैतिकता सापेक्ष, परिवर्तनशील तथा परिस्थितिजन्य है । पूर्वपक्षवालों ने नैतिक नियमों और विचारों को अनुद्भूत और प्रकृत्रिम कहा है । और उत्तर-पक्ष वालों ने उद्भूत तथा कृत्रिम कहा है । उन पक्षों के मूल में हमें दो भिन्न वाद एवं सिद्धान्त मिलते हैं: सहजज्ञानवाद और प्रकृतिवाद ।
सहजज्ञानवाद का व्यापक अर्थ - नैतिकता को निरपेक्ष और शाश्वत कहने वालों ने ही सहजज्ञानवाद ( Intuitionism ) को जन्म दिया । इन्ट्युशनिज़्म व्युत्पत्ति लेटिन शब्द इनंट्योर ( Intuer ), जिसका अर्थ 'देखना ' अथवा
सहजज्ञानवाद / २३५.
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