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इच्छाओं, भावनाओं आदि का उन्नयन करना पड़ता है अथवा उनके प्रति तटस्थ होना पड़ता है तब उसमें कर्तव्य का ज्ञान जाग्रत होता है । कर्तव्य शब्दमात्र नहीं है । यह शुभ इच्छाओं का सूचक है । काण्ट ने इच्छाओं से इसका वियोग कराकर इसे अर्थशून्य और अव्यावहारिक कर दिया है । काण्ट का सिद्धान्त अपनी रुक्षता के कारण मनुष्य को श्रेष्ठतर बनने के लिए पर्याप्त प्रेरणा प्रदान नहीं करता । कर्तव्य अथवा बुद्धि के नियम का सम्बन्ध मनुष्य की भावनानों से है; उसके वैयक्तिक और सामाजिक जगत् से है । अपने -प्रापमें- इन सम्बन्धों से अलग — 'कर्तव्य' कुछ नहीं है ।
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वैराग्यवाद अपने-आपमें अपूर्ण - मनुष्य का नैतिक जीवन बौद्धिक और भावुक आत्मा का जीवन है, अथवा उसका सम्पूर्ण जीवन है । नैतिकता जीवन के किसी एक अंग के त्याग की अपेक्षा नहीं रखती । उसी अंग का त्याग क्षम्य है जो कि सम्पूर्ण की उन्नति और पूर्णता में बाधक है । वैराग्यवादी प्रदर्श
पूर्ण भ्रान्तिपूर्ण और एकांगी है। यह जीवन्त श्रादर्श नहीं है । सक्रियता के बदले वह निष्क्रियता को अपनाता है । विकारशून्यता, भावहीनता, तटस्थता, राग-रस-हीनता आदि मानवोचित गुण नहीं हैं । संसार के क्रिया-कलापों के प्रति दर्शकमात्र होना, जीवन में अभिरुचि न लेना मनुष्यत्व का चिह्न नहीं है । ऐसे मरुभूमि के आदर्श के मूल में यह धारणा है कि देह आत्मा का बन्दीगृह है । इन्द्रियपरक जीवन को अपनाना बहेलिये के जाल में फँसना है । ऐसी धारणा भ्रान्तिपूर्ण होने के साथ ही मृत्युसूचक है । जिस जगत् में हम रहते हैं, कर्म करते हैं अथवा जिसका प्रत्येक क्षण अनुभव करते हैं, उसे स्वप्नमात्र नहीं कह सकते। जीवन को क्षणिक और स्वप्नतुल्य माननेवाला बौद्धिक श्रादर्शवाद स्तुत्य नहीं है । वही बुद्धिपरतावाद मान्य है जो इन्द्रियपरता का अपने में समावेश करके उसे संगठित करता है । इन्द्रिय जीवन की अनेकता के लिए बुद्धि की संगठन की शक्ति की आवश्यकता है । बुद्धि के नियम को केवल अनुभवनिरपेक्ष कहकर बुद्धि परतावादियों ने रूपात्मक सिद्धान्त को महत्त्व दिया । वे यह भूल गये कि उसका विषय भावना से प्राप्त होता है। बिना विषय के वह अस्थिपंजर मात्र और रिक्त है। भावना भी बिना बुद्धि के अन्धी है, उसका मार्ग-निर्देशन बुद्धि करती है । परिपूर्ण नैतिक जीवन के लिए बुद्धि और भावना दोनों ही आवश्यक हैं ।
सुखवादी भूल -- काण्ट का मनोविज्ञान भ्रान्तियों से मुक्त नहीं है । नैतिक आत्मा कर्तव्य को समझती है । वह कर्तव्य करने के लिए बाधित हैं। नैतिक
२३० / नीतिशास्त्र
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