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१४ बुद्धिपरतावाद सामान्य परिचय-बुद्धिपरतावाद वह सिद्धान्त है जो यह मानता है कि मनुष्य का मौलिक स्वरूप बौद्धिक है, भावनात्मक नहीं। इसका सुखवाद से प्रत्यक्ष विरोध है। यह उसके बिल्कुल ही विपरीत है। इसके अनुसार जीवन का ध्येय बौद्धिक है, वह भावना से स्वतन्त्र है । सुख का निराकरण करते हुए बुद्धिपरतावाद कहता है कि सुख की प्रेरणा से किया हुआ कर्म अनैतिक है । बुद्धिपरतावाद ने इन्द्रियों के हनन को अनिवार्य बतलाते हुए बुद्धि की प्रधानता सिद्ध की है । यदि सुखवाद ने 'सुख सुख के लिए कहा तो बुद्धिपरतावाद ने 'कर्तव्य कर्तव्य के लिए' कहा। सुखवादियों ने सुख, व्यावसायिक बुद्धि और लाभप्रद साधन को महत्त्व दिया और बुद्धिपरतावादियों ने कर्तव्य, सद्गुण और नियमोचित कर्म को । एक ने नैतिकता का सम्बन्ध कर्म के परिणाम (सुख-दुःख) से जोड़ा तो दूसरे ने प्रेरणा की पवित्रता से । यदि पूछा जाये कि उचित कर्म की क्या पहचान है, अथवा नैतिक नियम को कैसे समझा जा सकता है, तो बुद्धिपरतावादी कहेंगे कि उचित कर्म और नैतिक नियम को बुद्धि की सहायता से समझ सकते हैं। वास्तव में आचरण के लिए नियम बुद्धि देती है। बौद्धिक नियम के अनुसार कर्म करना ही नैतिक तथा उचित है। उचित को उचित के लिए ही करना चाहिए । सभी बुद्धिवादियों-हिरेक्लिटस से लेकर काण्ट तक – ने नैतिकता का परम मानदण्ड नियम को माना है । यह नियम बौद्धिक है । बुद्धि ही नैतिकता के परम मानदण्ड के रूप में नियम, विधि या आदेश देती है । उसके अनुरूप कर्म करना ही उचित है। __दो रूप-सुखवाद की भांति बुद्धिपरतावाद का भी नीतिज्ञों ने भिन्न-भिन्न २०४ / नीतिशास्त्र
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