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पालोचना व्यक्तिवाद-स्टोइक्स यह मानते हैं कि ज्ञान सद्गुण या शुभ के स्वरूप को समझाता है । वह बताता है, 'प्रकृति के अनुसार कर्म करो', 'विकारशून्य वैरागी बनो', 'विश्वप्रेमवाद को अपनायो', साथ ही स्टोइक्स ने अपने समय की भावात्मक नैतिकता को स्वीकार करके कर्तव्य को महत्त्व दिया है। इसमें सन्देह नहीं कि कर्तव्य को महत्त्व देकर उन्होंने अपने सिद्धान्त को सिनिक्स के वैयक्तिक
और प्रभावात्मक नियम-निष्टता से मुक्त कर लिया। पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि अपने इस प्रयास में वे पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाये। इसका कारण यह है कि उन्होंने सिनिक्स के उस आदर्श की पूनःस्थापना करनी चाही जिसके अनुसार प्रात्म-निर्भरता और आत्म-पर्याप्तता का जीवन ही आदर्श
जीवन है।
___जीवन की सारहीनता-स्टोइक्स ने सद्गुण को जीवन का ध्येय माना है । सद्गुण ही कल्याण है और वह प्रकृति के अनुरूप रहने से प्राप्त होता है । प्रकृति के अनुरूप रहवा शुद्ध बुद्धिमय जीवन व्यतीत करना है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ सरल, स्वाभाविक धारणाएँ होती हैं । ये धारणाएं सब मनुष्यों में समान रूप से वर्तमान हैं । जब मनुष्य इन्हें समझकर इनके अनुरूप कर्म करता है तो वास्तव में वह अपने स्वाभाविक यथार्थ रूप का अनुसरण करता है । वस्तुओं का अान्तरिक स्वभाव बौद्धिक है। बौद्धिक विधान के अनुरूप कर्म करना ही उचित है। सार्वभौम लोग'स (बुद्धि) विश्व में तथा व्यक्तियों में, जो कि विश्व के अंग हैं, अभिव्यक्त होता है। बौद्धिक मनुष्य सार्वभौम बुद्धि का. सहभागी है। उसे बुद्धि द्वारा निर्देशित जीवन बिताना चाहिए। स्टोइक्स के ऐसे सिद्धान्त में स्वाभाविक इन्द्रिय जीवन के लिए कोई स्थान नहीं है । बौद्धिक और अबौद्धिक तत्त्वों की संगति असम्भव है । भावना आत्मा की शत्रु है । ग्रह उसे बाह्य जगत से बांधती है। बुद्धि प्रात्सा को उससे मुक्त करती है जो अनात्मा है, जो छायामात्र, भ्रमपूर्ण और असत्य है। यदि आत्मा को जीवित रखना है तो भावना को रत्ती भर भी स्थान नहीं देना चाहिए। ऐसे सिद्धान्त की व्यावहारिक उपयोगिता है, इसमें सन्देह नहीं है। दु:ख के असह्य क्षणों में विरक्ति का भाव एक सबल सम्बल की भाँति है। वह व्यक्ति की मानसिक स्थिति को अपसामान्य होने से बचाता है, उसकी सहनशक्ति को सुदृढ़ बनाता है। किन्तु फिर भी यह कहना अनुचित न होगा कि भावनाहीन जीवन नीरस और निष्प्राण है । यह उस कर्तव्य की प्रभुता को भी छीन लेता है जो कि
बुद्धिपरतावाद / २१३
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