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बौद्धिक स्वरूप-स्वतः मूल्यवान् है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि जब वह किसी नियम को बनाता है अथवा किसी आचरण को अपनाता है तो उसे केवल अपने ही लाभ का ध्यान नहीं रखना चाहिए । अपने ही समान उसे दूसरों को भी किसी अन्य ध्येय के लिए साधन नहीं मानना चाहिए। अथवा इस प्रकार कर्म करना चाहिए कि "समस्त मानवता को, चाहे वह अपने व्यक्तित्व के रूप में हो या किसी दूसरे व्यक्ति के रूप में,-तुम प्रत्येक अवस्था में साध्य समझ सको, न कि साधन ।" बौद्धिक संकल्प अपना नियम स्वयं बनाता है और स्वयं उसका पालन करता है। प्रात्म-पारोपित नियम का पालन करना अनिवार्य है। उसकी बाध्यता आन्तरिक है, न कि बाह्य । मात्मआरोपित होने के कारण ही वह परम आदेश के रूप में व्यक्त होता है । मनुष्य उस नियम के अधीन है और उसके अधीन होना ही मनुष्य की स्वतन्त्रता है । "इस प्रकार कार्य करो कि तुम पूर्णता के सार्वजनिक राज्य (Universal Kingdom of Ends) में अपने सिद्धान्तों द्वारा नियमों के विधायक बन सको।" काण्ट उस पूर्णता के राज्य की कल्पना करता है जहाँ कि बौद्धिक प्राणियों का समुदाय वास करता है । इस समुदाय का प्रत्येक व्यक्ति अपने आन्तरिक नियम का पालन करता है और वह स्वशासित है। आन्तरिक नियम एवं बौद्धिक नियम सार्वभौम नियम भी है। आत्म-आरोपित नियमों का पालन करनेवाले प्राणियों के राज्य में संगति और सामंजस्य है । नैतिक राज्य विरोधी इकाइयों तथा स्वार्थी प्रवृत्तियों का अस्वाभाविक संगठन नहीं है। वह बौद्धिक संकल्पों की आन्तरिक एकता को व्यक्त करता है । नैतिकता स्वार्थी प्रवृत्तियों के विरोध को मिटा देती है।
मालोचना - नीतिवाक्य असन्तोषप्रद हैं—यदि आचरण को सुनिर्देशित करने के लिए काण्ट के नीतिवाक्यों का अध्ययन किया जाये तो उन्हें केवल रूपात्मक पायेंगे। उनके आधार पर विशिष्ट कर्तव्यों की रूपरेखा निर्धारित नहीं की जा सकती
और न यही कहा जा सकता है कि क्या करना चाहिए। क्या काण्ट के नीतिवाक्य: व्यावहारिक दृष्टि से मूल्यहीन हैं ? काण्ट ने वास्तव में परम आदेश को पाँच नीतिवाक्यों द्वारा व्यक्त किया है। किन्तु उन पाँचों को उपर्युक्त तीन वाक्यों के अन्तर्गत समझाया जा सकता है । काण्ट के ये नीतिवाक्य बतलाते हैं कि कर्म का सार्वभौम होना, विरोधरहित होना ही उसकी नैतिकता का चिह्न है।
बुद्धिपरतावाद (पस्शेिष) / २२५.
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