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प्राणी अबौद्धिक या संवेदनशील व्यक्ति को परम आदेश देता है कि 'कर्तव्य का पालन करो।' यह आदेश अनिवार्य है। बुद्धि को साध्य माननेवाला अथवा कर्तव्य की प्रेरणा से कर्म करनेवाला अबौद्धिक कर्मों को नहीं करेगा। कोई कर्म, चाहे वह कितना ही प्रशंसनीय क्यों न हो, यदि उसकी उपज स्वाभाविक प्रवृत्ति से हुई हो, यहाँ तक कि सहानुभूति और दया से भी हुई हो तो वह नैतिक दृष्टि से शुभ नहीं है। ऐसे कर्मों को प्रोत्साहित करना वांछनीय तो है पर ऐसे कर्मों को शुभ नहीं कह सकते । इच्छाओं और भावनाओं से युक्त कर्म अनैतिक हैं। प्रवृत्ति से किया हुआ कर्म कर्तव्य के अनुरूप हो सकता है किन्तु वह सदैव नैतिक मूल्य से रहित रहेगा। यदि कर्ता किसी को इस कारण सहायता देता है कि वह सहानुभूति से द्रवित हो गया है अथवा उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति ने उसे प्रेरित किया है तो ऐसा कर्म अनैतिक है और यदि वह बिना दूसरे के दु:ख से दुखी हए कर्तव्यवश उसे सहायता देता है तो वह कर्म शुभ है । कर्म तभी शुभ है जब वह बौद्धिक संकल्प से किया गया हो अथवा जब वह कर्तव्य के लिए किया गया हो । कर्तव्य कर्तव्य के लिए करना चाहिए। कर्तव्य से किया हुआ कर्म ही नैतिक कर्म है। कर्तव्य की चेतना ही संचालिका चेतना होना चाहिए । कर्तव्य की प्रेरणा से कर्म करने चाहिए। अन्य प्रेरणाएँ नैतिक मल्यहीन हैं। कर्तव्य की प्रेरणा के सिवाय अन्य प्रेरणाएँ प्रवृत्तियों का ही रूप हैं । वे विभिन्न प्रवृत्तियों, आवेगों एवं सुख की इच्छाओं को व्यक्त करती हैं । इस प्रकार काण्ट ने प्रेरणाओं को दो वर्गों में बाँट दिया है-कर्तव्य की प्रेरणा और प्रवृत्तियों को व्यक्त करनेवाली प्रेरणाएँ। उसने प्रेरणा और परिणाम तथा बुद्धि और प्रवृत्तियों में भी पूर्ण विरोध पाया है । बुद्धि का आदेश परम आदेश है। वह कर्तव्य का आदेश है । काण्ट कहता है, 'अपना कर्तव्य करो, चाहे परिणाम कुछ भी हो।' बौद्धिक आदेश मनुष्य पर अपने को पारोपित करता है और बिना परिणाम को महत्त्व दिये संकल्प को कर्म में परिणत करता है। वह आदेश प्रत्यक्ष सिद्ध है।
सद्गुण और प्रानन्द-काण्ट के पूर्व के नीतिज्ञों ने नैतिकता को परम शुभ की धारणा पर प्राधारित किया है। परम शुभ सदगुण और आनन्द दोनों का अपने में समावेश करता है । काण्ट मानता है कि उच्चतम शुभ में ये दोनों ही हैं। किन्तु वह परम शुभ और नैतिक शुभ को एक ही नहीं मानता; दोनों में भेद देखता है। नैतिकता पूर्ण तटस्थता की अपेक्षा रखती है, वह भावना को आकर्षित नहीं करती। वह अपने को संकल्प पर आरोपित करती है । अतः
,२२२ / नीतिशास्त्र
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