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बुद्धि मनुष्य को इसलिए प्राप्त नहीं हुई है कि वह अंगी के लिए उपयोगी सिद्ध हो । बुद्धि के कर्म का क्षेत्र भिन्न है । उसका उचित क्षेत्र संकल्प का क्षेत्र है । अपने सिद्धान्त के अनुरूप संकल्प को निर्देशित करना तथा बौद्धिक संकल्प को उत्पन्न करना बुद्धि का काम है । संकल्प का शुभत्व उसके बौद्धिक होने पर निर्भर है । वही संकल्प शुभ है जो बौद्धिक है । काण्ट का यह कहना था कि शुभ संकल्प के अतिरिक्त विश्व में अथवा विश्व से परे ऐसा कुछ भी नहीं दीखता है जिसे कि बिना किसी विशेषण के शुभ कह दें । अथवा शुभ संकल्प ही एकमात्र वह वस्तु है जिसे कि बिना किसी सीमा के शुभ कह सकते हैं । उसका स्वरूप उसके ही प्रान्तरिक सिद्धान्त पर निर्भर है । वह विश्व की कार्यकारण-श्रृंखला से स्वतन्त्र है । उसका शुभत्व परिस्थिति विशेष द्वारा निर्धारित नहीं होता है । वह अपने-आपमें शुभ है, न कि बाह्य तथ्यों और ध्येयों के सम्बन्ध में । उसका शुभत्व न तो उस ध्येय पर निर्भर है जिसे वह खोजता है. और न उसकी उपयोगिता पर ही निर्भर है । उसे न तो उस स्वाभाविक प्रवृत्ति ( चाहे वह शुभ प्रवृत्ति ही हो) के सम्बन्ध में शुभ कह सकते हैं जो कि उसे निर्धारित करती है और न किसी अन्य वस्तु से सम्बन्धित होकर ही वह शुभ होता है । वह सबसे स्वतन्त्र तथा अपने-आपमें शुभ और स्वप्रकाश है । वह अपनी ज्योति से उसी प्रकार ज्योतित है जिस प्रकार कि बहुमूल्य मणि अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होती है । अतः काण्ट इस परिणाम पर पहुँचता है कि बौद्धिक संकल्प या शुभ संकल्प ही एकमात्र शुभ है और शुभ संकल्प कर्तव्य के लिए कर्म करता है । काण्ट का यह कथन उसके सिद्धान्त के उस पक्ष की ओर ले जाता है जो कर्तव्य और स्वाभाविक प्रवृत्तियों, नैतिक प्रेरणा, परिणाम तथा सामान्य प्रेरणाओं के बीच स्पष्ट विरोध का स्थापक है । कर्तव्य और प्रवृत्ति — काण्ट के सिद्धान्त में कर्तव्य की धारणा का प्रथम बार स्पष्ट रूप मिलता है । वास्तव में उसने कर्तव्य की धारणा से ही शुभ की धारणा का निगमन किया। उसका कहना था कि बौद्धिक प्राणी होने के कारण मनुष्य अपने को बुद्धि के उस उच्चतर नियम से शासित करता है जो कि इन्द्रिय-परता की उपेक्षा करता है । शुभ संकल्प के अनुरूप कर्म करना उचित है। शुभ संकल्प का विशिष्ट गुण यह है कि वह अपने-आपमें शुभ है । वह सिद्धान्त के अनुरूप कर्म करता है । वौद्धिक प्राणी होने के कारण मनुष्य अपने में एक ऐसा जीवन चाहता है जो बुद्धि की सृष्टि है । बौद्धिक प्राणी अपने-आपमें साध्य है । • उसे किसी अन्य साध्य के लिए अपने को साघन नहीं बनाना चाहिए । बौद्धिक
बुद्धिपरतावाद ( परिशेष) / २२१
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