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जब नैतिक नियम का पालन करता है तब कहा जाता है कि वह आन्तरिक नियम का पालन कर रहा है; अपने बौद्धिक और सत्य स्वरूप के अनुरूप कर्म कर रहा है । बौद्धिक प्राणियों के कर्म सुख-दुःख की भावनाओं, बाह्य शक्तियों एवं अबौद्धिक आत्मा द्वारा यान्त्रिक रूप से निर्धारित नहीं होते। उन्हें बौद्धिक या सत्य आत्मा का सिद्धान्त निर्धारित करता है । इस अर्थ में मनुष्य की स्वतन्त्रता आत्म-प्रारोपित नियम का पालन करने पर निर्भर है। बुद्धि के आदेश की अवज्ञा करना मनुष्य के लिए उचित नहीं है । यह अपने स्वरूप का - अपनी बौद्धिक आत्मा का निराकरण करना है । अपनी इस श्रेष्ठता के कारण वह
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बुद्धि के उच्च नियमों से शासित है, न कि इन्द्रियपरक जीवन के नियमों से । यदि वह शुद्ध बुद्धि होता तो उसका जीवन संघर्षहीन होता । दो भिन्न धरातलों
से संयुक्त होने के कारण उसमें आन्तरिक द्वन्द्व होता है । भावनाएँ उसे अपनी
र खींचती हैं और संकल्प अपने निरपेक्ष आदेश को आरोपित करता है । बौद्धिक होने के कारण उसे चाहिए कि केवल बौद्धिक प्रदेश का पालन करे । बौद्धिक प्रदेश का पालन करना ही आत्म- आरोपित नियम का पालन करना है । यही मनुष्य की स्वतन्त्रता है ।
स्वशासित जीवन में भावना के लिए स्थान नहीं है; सुखवाद अनैतिक हैकाण्ट उन सभी सिद्धान्तों को सुखवाद के अन्तर्गत मान लेता है जो इच्छाओं की तृप्ति को कर्म का प्रेरक मानते हैं । इन सिद्धान्तों ने बुद्धि के साध्य रूप को नहीं समझा है और बाह्य शक्तियों से शासित जीवन को स्वीकार कर बुद्धि को इच्छात्रों में ध्येयों की प्राप्ति के लिए साधनमात्र माना है । बुद्धि अपने-प्राप में सक्रिय है, इस तथ्य से सुखवाद अनभिज्ञ है। उसने सुख को श्रादर्श मानकर इच्छाओं की तृप्ति को ध्येय मान लिया है और क्षणिक इच्छात्रों और आवश्यकताओं की पूर्ति का आदेश दिया है । काण्ट के अनुसार विशिष्ट इच्छात्रों की पूर्ति द्वारा सुख प्राप्त करने के लिए वैधानिक आदेशों (Technical imperatives) का प्रतिपादन किया जा सकता है । ये निश्चित और निरपेक्ष श्रादेश ( definite and categorical imperative ) नहीं हैं। इसका कारण यह है कि सुख का विषय परिवर्तनशील है तथा इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ प्रात्मगत और वैयक्तिक हैं । बौद्धिक जीवन ही मनुष्य के लिए आदर्श जीवन है । जीवन का ध्येय सुख नहीं, सद्गुण है। कर्म को सुख की समस्त धारणाओं से मुक्त कर देना चाहिए । बौद्धिक नियम ही नैतिक
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नियम है। नैतिक नियम उस सिद्धान्त को
२१८ / नीतिशास्त्र
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