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सजातियों के प्रति घृणा प्रदर्शित की और रीति-रिवाज को उपेक्षा से देखा। एण्टिस्थीनीज़ का शिष्य डायोजिनिस अपने विचित्र आचरण, झक्कीपन और बेवकूफी के लिए विख्यात है। डायोजिनिस जब बहुत बूढ़ा हो चुका था और यूनान-भर में जब उसकी ख्याति फैल चुकी थी तब अलेग्जेण्डर ने उसके बारे में सुना और वह उससे मिलने गया। वहाँ पहुँचकर उसने डायोजिनिस से पूछा कि क्या मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ? डायोजिनिस, जो कि टब में बैठकर सूर्य-स्नान कर रहा था, बोला कि आप केवल धूप के सामने से हट जायें। डायोजिनिस के जीवन के ऐसे उदाहरण नैतिक और सामाजिक जीवन की व्यर्थता के सूचक हैं । नीतिवाक्यों को व्यावहारिक रूप देने के लिए सिनिक्स ने निर्लज्जता, अशिष्टता और भद्देपन को स्वीकार किया। पायरो' के आचरण में एक विचित्र व्यक्तित्व मिलता है। उसे तर्कशास्त्र और विज्ञान से घृणा थी क्योंकि उसके अनुसार वे प्रात्मोन्नति में सहायक नहीं हैं। उसकी नैतिक धारणाएँ सन्देहवाद की पोषक हैं। उसके अनुसार सन्देह सद्गुण की प्राप्ति में सहायक है। यदि किसी प्रकार यह विश्वास हो जाये कि न शुभ है और न अशुभ तो वस्तुओं के प्रति स्वतः ही विरक्ति उत्पन्न हो जायेगी। पायरो मानता है कि विरक्ति ही इच्छाओं और वासनाओं से मुक्त करती है। यही विवेक है।
आलोचनात्मक परीक्षण : सुकरात से थोथा साम्य-सिनिक सिद्धान्त अपने प्रारम्भिक रूप में वैराग्यवादी था। इसका सारवाक्य था : सुख पाप है और दु:ख शुभ है । इसके अनुगामियों ने अपने आचरण द्वारा इसे निर्लज्जता का बाना पहना दिया। इसके संस्थापक का कहना था कि वह सुकरात का अनुगामी है। पर एण्टिस्थीनीज़ को सुकरात का सच्चा शिष्य नहीं मान सकते । सुकरात के सिद्धान्त की महत्ता एण्टिस्थीनीज़ के हाथ में आते ही हीन और तुच्छ हो जाती है। दोनों के प्रमुख ध्येय में भेद है। सुकरात के मानव-कल्याण की धारणा एण्टिस्थीनीज़ द्वारा प्रहन्तावाद और वैराग्यवाद में परिणत हो जाती है । उनकी आत्मनिर्भरता अपने सजातीयों के अपमान का साधनमात्र है। कला-सौन्दर्य-प्रेमी, सांसारिक सुख और ऐश्वर्य में लीन यूनानियों को सिनिक्स ने कठोर परिश्रम और कष्ट का सन्देश दिया। किन्तु वे इस सन्देश को स्वीकार नहीं कर पाये और उससे प्रभावित नहीं हो सके। अतः यह सिद्धान्त प्रचलित और लोकप्रिय नहीं हो सका।
1. Pyrrho.
बुद्धिपरतावाद | २०७
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