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अन्धानुकरण करने में व्यक्ति के जीवन की सार्थकता नहीं है । व्यक्ति अथवा समाज की नैतिक प्रगति वैश्व क्रम का अनुकरण करने में नहीं है और न उससे मुंह मोड़ लेने में ही है; किन्तु उससे संघर्ष करने में है। विकासवाद यह नहीं समझा पाता कि जीवन का क्या अर्थ है। वह केवल यह कहता है कि जीवनसंरक्षण अनिवार्य है, जिसके लिए प्राकृतिक नियमों का अनुकरण भी अनिवार्य है। इसमें सन्देह नहीं कि कोई भी नीतिज्ञ उन नियमों की अवहेलना नहीं करेगा। जो सामाजिक संरक्षण के लिए आवश्यक हैं। सच तो यह है कि बिना समाज के नैतिक नियम व्यर्थ हैं । किन्तु मुख्य प्रश्न यह है कि क्या एकमात्र ध्येय संरक्षण ही है ? क्या मानवता की स्थापनामात्र से सन्तोष प्राप्त हो सकता है ? क्या उसके अस्तित्व एवं जीवन को अधिक वांछनीय बनाना ध्येय नहीं है ? क्या जीवन की लम्बाई और चौड़ाई की वृद्धि से प्रात्म-सन्तोष मिल सकता है ? नैतिक दृष्टि से ऐसा जीवन अपने-आप में वांछनीय नहीं है। बौद्धिक प्राणी अजगर का-सा जीवन नहीं बिता सकता। नैतिक ध्येय गुणविहीन ध्येय नहीं है। नैतिक मान्यताएँ गुणात्मक भेद की अपेक्षा रखती हैं । कर्तव्य की भावना को विकासवादियों ने भौतिक नियमों के आधार पर समझाया। मनुष्य चाहे अथवा न चाहे, प्रकृति उसके आचरण को एक विशिष्ट रूप दे देगी, उसकी प्रकृति को एक विशिष्ट प्रकार का बना देगी । ऐसी स्थिति में मनुष्य के लिए नैतिक ध्येय की प्राप्ति का प्रयास करना मुख्य वस्तु नहीं है । स्वार्थ का परमार्थ में अनायास ही रूपान्तर हो जाता है और प्राकृतिक चयन कर्तव्य की भावना का प्रादुर्भाव कर देता है; ऐसे सिद्धान्तों को अपनाकर मनुष्य जीवन के प्रति, नैतिक एवं बौद्धिक मान्यताओं के प्रति वैसी ही भावना हो जायेगी जैसी कि अन्य प्राकृतिक प्राणियों- पशु, वृक्ष, अचेतन वस्तुओंकी होती है। विकासवादी भूल गये कि मनुष्य और पशु में भेद है । मनुष्य उस ध्येय को देख और समझ सकता है जिसकी ओर प्रकृतिरूपी गाड़ी बढ़ रही है । दृढ़ संकल्प और प्रबल व्यक्तित्ववाला मनुष्य प्राकृतिक दिशा के विमुख भी जासकता है। विकासवादियों का सिद्धान्त विचित्र है। वे नैतिक प्रत्ययों को प्राकृतिक चयन एवं जीवन-संघर्ष द्वारा समझाते हैं। उनके न्याय का सिद्धान्त तथा कर्तव्य की भावना इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। उन्होंने नैतिक सुखवाद के साथ उपयोगितावाद को संयुक्त करना चाहा एवं प्रकृतिवाद और सहजज्ञानवाद को एक मान लिया और नैतिक शुभ और प्राकृतिक शुभ तथा जैव शुभ में तादात्म्य देखा । उन्होंने स्वार्थ-परमार्थ, कर्तव्य और सुख विरोध मानकर
२०२ / नीतिशास्त्र
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