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अनुभव का केन्द्र एक ही होता है किन्तु समाज प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा चिन्तन तथा अनुभव करता है। उनकी बौद्धिक या सामाजिक प्रात्मा के रूप में ही उसका अस्तित्व है। व्यक्ति पारस्परिक रूप से एक-दूसरे पर निर्भर अवश्य हैं, किन्तु प्रत्येक का अपना निजत्व है। जीव-विधान या रचनाशास्त्र के अनुसार समान होने पर भी उनके कर्तव्य, कर्म एवं व्यापारों में भिन्नता है। जैव जीव-रचना और सामाजिक जीव-रचना में यहाँ पर स्पष्ट भेद है। जीवरचना के निर्माणात्मक अंग अथवा जीवाण जीव-रचनाशास्त्रानुसार न तो एकरूप (समान) हैं और न उनके व्यापार ही समान हैं। जीवाणु जीव-रचना पर निर्मर हैं। उनका जीवन प्रात्मनिर्भर और स्वतन्त्र नहीं है। किन्तु व्यक्ति समाज पर निर्भर होते हुए भी स्वतन्त्र है। समाज उन प्रात्मप्रबुद्ध आत्माओं का संगठन है जिनके कर्म स्वेच्छाकृत हैं। वह वैयक्तिक अणुओं का यान्त्रिक समुदाय मात्र नहीं है। अतः जीव-रचना का रूपक समुचित सादृश्य नहीं है। इसे दूर तक नहीं ले जा सकते । जीव-रचना के रूपक को पूर्ण रूप से मान लेने पर व्यक्ति का निराकरण हो जाता है। इस अर्थ में शुभ एकमात्र सामाजिक है। किन्तु नीतिशास्त्र वैयक्तिक शुभ को भी मानता है। सुखवादी दृष्टिकोण से व्यक्ति समाज में खो नहीं जाता। उसका अपना व्यक्तित्व है, वह प्रात्मसुख की खोज करता है। वास्तव में नैतिक जीवन में स्वार्थ और परमार्थ दोनों के ही लिए समुचित स्थान है। वे एक-दूसरे को विलीन नहीं कर देते बल्कि एक महत्तर सत्य का अंग बन जाते हैं । वही उचित परमार्थ है जो स्वार्थ का समावेश करता है और वही उचित स्वार्थ है जो परमार्थ का समावेश करता है। प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति एक प्रहन्ता भी है । प्रहन्ता को नष्ट करना नैतिक जीवन को निर्मूल करना है। नैतिक जीवन का केन्द्र-बिन्दु प्रहन्ता के भीतर है । प्रहन्ता का ज्ञान ही परस्वार्थ का ज्ञान देता है। फिर भी विकासवादियों के 'जीव-रचना' के रूपक का महत्त्व है । यह समाज और व्यक्ति की वास्तविक पारस्परिक निर्भरता को बतलाता है।
सहजज्ञानवाद का विरोध : नैतिकता की उत्पत्ति-सहजज्ञानवादियों के. अनुसार नैतिक प्रत्यय सहज, परम और निरपेक्ष होते हैं। विकासवादियों ने अन्तर्बोध को ऐतिहासिक पद्धति से समझाकर सहजज्ञानवादियों की आलोचना की। उन्होंने यह बतलाया कि अन्तर्बोध के निर्णय सहजात और अनुपाजित महीं होते हैं। वे सामाजिक जीव-रचना से सापेक्ष रूप से सम्बन्धित हैं और अपने समय के समाज की. विकसित स्थिति को अभिव्यक्ति करते हैं । वे
विकासवादी सुखवाद | १६६
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