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नैतिकता का काम विशिष्ट नियमों को देना नहीं है और न वह मनुष्य पर 'नियमों को आरोपित ही करती है। वह केवल मार्ग-निर्देशित करती है और बुद्धिजीवी स्वेच्छा से उस मार्ग को स्वीकार करता है। विशिष्ट कर्तव्यों की रूपरेखा बनाना, जैसा कि अभी कहा जा चुका है, असम्भव तो है ही, अनैतिक भी है। फिर ऐसा व्यापक विधान नियमों के विरोध को बढ़ाता है, घटाता नहीं। धर्म ने इस विरोध को दूर करने का एक भिन्न उपाय निकाला। धर्मनिष्ठ का कर्तव्य है कि वह दैवी आदेशों का चुपचाप, बिना आपत्ति किये, सविनय पालन करे। मनुष्य को चाहिए कि वह राजा, धर्माध्यक्ष या प्रधान पुरोहित के निर्णयों को दैवी उपदेश समझकर स्वीकार करे। प्राचीन काल में भारत में राजा को धर्म की धुरी धारण करनेवाला माना जाता था। राजा ही प्रजा का पति तथा ईश्वर समझा जाता था। मध्ययुगीन यूरोप में भी राजा के देवी अधिकारों तथा प्रधान पादरी के आदेशों का बोल-बाला था। किन्तु इस 'सविनय आज्ञा पालन करने की आवाज़ को उठाकर भी धर्म व्यावहारिक कठिनाइयों और नियमों के विरोध को सुलझा नहीं पाया। दैवी आदेश को परम कहकर उसने नियमों के विधान में जिस संगति और सामंजस्य को स्थापित करना चाहा वह सम्भव न हो सका।
बौद्धिक जागरण—यह काल वास्तव में परिवर्तन का काल था। लोगों के अनुभव और ज्ञान की वृद्धि ने, संस्कृतियों के संघर्ष और कर्तव्यों की मूठभेड़ ने नैतिक बुद्धि को जागृत कर दिया। विकास की सर्वांगीण उन्नति ने मनुष्य का ध्यान गूढ़ चिन्तन की ओर आकर्षित किया। मनुष्य की बुद्धि ने अपने को सुप्तावस्था से मुक्त करके एकता की मांग सम्मुख रखी और उसका समाधान करने के लिए कर्तव्यों का संगतिपूर्ण विधान बनाने का प्रयास किया तथा 'सविनय आज्ञा पालन' करने की सलाह दी। लोगों के सन्देह और संशय को, उनकी आपत्तियों और विरोधों को 'दैवी इच्छा' के नाम पर दूर करना चाहा। आत्मा, सत्य और न्याय की पुकार को 'स्वर्ग की आकांक्षा', 'नरक का भय' अथवा पुरस्कार एवं दण्ड के भय से दबाना चाहा और इस प्रकार दैवी प्रादेश के नाम पर नैतिकता का विनाश करना चाहा। यह सभी मानेंगे कि नैतिकता शक्तिशाली बाह्य आदेशों की अनुवतिनी दासी नहीं है। इसमें भी सन्देह नहीं है कि आचरण के नियम असंस्कृत और अनैतिक व्यक्ति के लिए अनिवार्य हैं। वे उसको शिक्षित बनाने के लिए परम उपयोगी हैं। किन्तु नैतिक व्यक्ति जब प्रचलनों के अन्तःसत्य को समझने का प्रयास करता है और उसे उनमें अन्तविरोध
१०८ / नीतिशास्त्र
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