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स्वास्थ्य है, सुख नहीं । स्पेंसर का कहना था कि जब वैयक्तिक जीवन लम्बाई और चौड़ाई में अधिकतम हो जाता है तब विकास अपनी सीमा को प्राप्त कर लेता है। किन्तु लैस्ली स्टीफेन, स्पेंसर तथा बैंथम और मिल एवं उपयोगितावादियों के विरुद्ध कहता है कि नैतिक ध्येय जीव-रचना अथवा सामाजिक तन्तु का स्वास्थ्य या कार्यक्षमता है। अतः सामाजिक विकास-क्रम की अन्तिम स्थिति को वह 'अभिवृद्धि', 'उन्नति', जीवन की 'अधिकतम परिपूर्णता' प्रादि विभिन्न शब्दों द्वारा समझाता है। उसके अनुसार सुख और स्वास्थ्य भिन्न नहीं हैं। वे एक-दूसरे के अनुरूप हैं। किन्तु फिर भी कर्मों के बाह्य (सुखप्रद अथवा दुःखप्रद) परिणाम से उनके औचित्य को नहीं आंका जा सकता । वही कर्म शुभ हैं जो सामाजिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं। सामाजिक जीवन जीव-रचना का विकास है । कर्म के परिणाम का तभी भली-भांति गुणगान किया जा सकता है जबकि वह उसकी मूलगत बनावट का उन्नयन और सुधार करे, न कि जब वह उसकी क्षणिक स्थिति को प्रभावित करे । सामान्यत: हानिकारक कर्म दुःखप्रद होते हैं और लाभकारक कर्म सुखप्रद । नैतिक नियम सामाजिक तन्तु के गुणों की व्याख्या है। वे सामाजिक कल्याण एवं स्वास्थ्य की स्थिति का वर्णन करते हैं । जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप ये नियम बदलते रहते हैं । नैतिक नियम वे नियम हैं जो जीवन की आवश्यकताओं को व्यक्त करते हैं। वही नियम शुभ है जो सामाजिक स्वास्थ्य के संरक्षण में सहायक है । विकास के साथ ही नैतिक नियम अधिक स्पष्ट होते जायेंगे और सामाजिक प्रकार अधिक व्यापक होता जायेगा । लस्ली स्टीफेन यह समझाने का प्रयास करता है कि नैतिक नियम निरपेक्ष नहीं हैं। इनकी उत्पत्ति विकास के क्रम में हुई है। उसके अनुसार मानसिक दबाव ही नैतिकता को उत्पन्न करता है और उसकी रक्षा एवं पालन करता है। मनुष्य की चेतना में वही नैतिकता का प्रतिनिधि है । वह यह भी मानता है कि विकास के क्रम में एक प्रकार का आचरण ही नहीं बल्कि एक प्रकार का चरित्र भी विकसित होगा। विकास के क्रम में मनुष्य नैतिकता के बाह्य रूप 'यह करो' से उसके प्रान्तरिक रूप 'यह बनो' में पहुंच जायेगा, अर्थात् नैतिक विकास के क्रम में बाह्य कर्तव्य बुद्धि से कार्य करने से वह अन्ततः कर्तव्यपूर्ण बन जायेगा।
१६२ / नीतिशास्त्र
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