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कह सकता कि उनके कथन की अवहेलना करना सम्भव है। अथवा इन कथनों में कि 'अज्ञान सुखप्रद है' और 'ज्ञान की वृद्धि, दुःख की वृद्धि है जो आंशिक सत्य मिलता है, उससे मुंह मोड़ लेना सम्भव नहीं। स्पेंसर का विश्वास था कि जीवन की वृद्धि सुख की वृद्धि है। किन्तु क्या अधिक विकसित राष्ट्र और व्यक्ति अधिक सुखी हैं ? इसमें सन्देह नहीं कि उनकी विभिन्न शक्तियाँ और योग्यताएँ बढ़ गयी हैं। किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि उनकी सुख भोगने की शक्ति भी बढ़ गयी है । बल्कि इसके विपरीत यह देखा जाता है कि वे बौद्धिक और मानसिक अशान्ति से ग्रस्त हैं। वर्तमान जीवन इसका ज्वलन्त उदाहरण है। ___ सामंजस्य–स्पेंसर ने कहा कि मानव-जाति अपूर्ण सामंजस्य से पूर्ण सामंजस्य की ओर अग्रसर हो रही है। विकास की अन्तिम स्थिति पूर्ण सामंजस्य एवं स्थायी सन्तुलन की स्थिति होगी। क्या विकास स्थायी सन्तुलन को स्वीकार कर सकता है ? क्या पूर्ण संयोजित व्यक्ति सम्भव है ? विकास और पूर्ण सन्तुलन, ये दो विरोधी धारणाएँ हैं। विकास एक बहती हुई नदी के समान है जो अनेक नये कगारों रूपी इच्छानों और भावनाओं को उत्पन्न करती रहती है। यदि स्थायी सन्तुलन रूपी सेतु की स्थापना कर भी दी जाय तो वह पुनः नवीन शक्तियों द्वारा विच्छिन्न हो जायेगा । विकास परिवर्तनशील जीवन का सूचक है, स्थायी सन्तुलन स्थिर जीवन का तथा स्थिर जीवन मत्यू का ही दूसरा नाम है। ऐसा पूर्ण सुख अथवा परम शान्ति मरघट में ही सम्भव है। मनुष्य में संयोजन उस अनिवार्य प्राकृतिक सम्बन्ध के रूप में प्रकट नहीं होता है जिसके लिए वह सचेत न रहे। मनुष्य में संयोजन प्राकृतिक स्थिति मात्र का सूचक नहीं है, वह अर्थगभित है। संयोजन को अर्थ मनुष्य का मानस देता है। उसके मानस में कुछ अप्राप्य ध्येय अथवा आदर्श हैं और उनकी प्राप्ति के लिए वह परिस्थिति के साथ विशिष्ट प्रकार से संयोजित होना चाहता है। वैज्ञानिक, दार्शनिक और चिन्तक अपने आदर्श के अनुरूप ही जगत् को देखना चाहते हैं । वे जगत को अपने प्रादर्श से संयोजित करना चाहते हैं। आत्मचेतन प्राणी वातावरण और परिवेश में कमियाँ पाता है। वह उसे अपने मानसिक आदर्श के अनुरूप नहीं पाता है। कमियों को निर्धारित करनेवाला मानदण्ड उसे वातावरण नहीं देता बल्कि उसका मानस देता है। मनुष्य के लिए सामंजस्य कोरा शब्द मात्र नहीं है। यह उसके आदर्श से संयुक्त होकर अर्थभित हो जाता है । ऐसे सामंजस्य को समझने के लिए ध्येय या अन्त को समझना चाहिए, १६६ / नीतिशास्त्र
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