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वह केवल सुख चाहता है। अथवा उसे चाहता है जो या तो सुख का अंश हो, या सुख के लिए साधन हो, या स्वयं सुखप्रद हो। इस प्रकार मनुष्य सदैव किसीन-किसी रूप में सुख की खोज करता है। मनुष्य-स्वभाव के आधार पर ही यह सिद्ध होता है कि सुखप्रद वस्तुएँ वांछनीय हैं। अस्तु, कर्मों का परम ध्येय सुख है और आचरण का शुभ होना इस तथ्य पर निर्भर है कि वह सुख की कितनी वृद्धि करता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सुख ही नैतिकता का मापदण्ड है। सुख की वांछनीयता को सिद्ध करने के लिए मिल यहाँ तक कहता है कि अभ्यस्त आत्मनिरीक्षण और आत्मचेतना के सहारे यदि अन्य व्यक्तियों के निरीक्षण का मिलान करें तो स्पष्ट प्रमाण मिल जाता है कि "किसी वस्तु को चाहना और उसे सुखप्रद कहना तथा किसी वस्तु को न चाहना और उसे दुःखप्रद कहना, ये क्रियाएँ पूर्ण रूप से अभिन्न हैं। यह एक ही मनोवैज्ञानिक सत्य का दो भिन्न प्रकार से नामकरण करना है। किसी वस्तु को वांछनीय मानना::: और उसे सुखप्रद मानना एक ही बात है ।" अतः सुख ही एकमात्र वांछनीय ध्येय है। "किसी वस्तु को दृश्य (visible) सिद्ध करने के लिए एकमात्र प्रमाण यह है कि लोग उसे वास्तव में देखते हैं। इसी भाँति.. किसी वस्तु को वांछनीय (desirable) कहने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई प्रमाण नहीं है कि लोग उसे वास्तव में चाहते हैं ।" मिल यहाँ पर दृश्य और वांछनीय को एक ही श्रेणी में रख देता है । दृश्य के अर्थ होते हैं जो दृष्टिगम्य हो अथवा दिखायी देता हो (capable of being seen) । मिल ने दोनों के उपसर्ग (able) के सादृश्य देखा और इस आधार पर उसने वांछनीय का अर्थ लगा लिया-"वह जिसकी इच्छा की जा सकती है।" अर्थात् (capable of being desired) वह अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने के आवेश में यह बात भूल गया कि जब 'एबुल' (able) शब्द 'डिज़ायर' (desire) के साथ उपसर्ग के रूप में संयुक्त होता है तब उसके अर्थ बदल जाते हैं। उसके अर्थ हो जाते हैं : इच्छा का उचित और विवेकसम्मत विषय अथवा वह वस्तु जिसकी इच्छा करनी चाहिए। उस वस्तु को वांछनीय नहीं कहते हैं जिसकी सामान्य रूप से अथवा स्वभाववश इच्छा करते हैं । सर्वसामान्य का अनुभव यह बतलाता है कि प्रत्येक वस्तु इच्छा का विषय बन सकती है। मिल 'इच्छा की जा सकने वाली वस्तु को और वांछनीय को एक ही मान लेता है । यही मिल की मूल है, जो वाक्यालंकार की भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति से युक्त होकर वह निश्चयात्मक भाव से कह देता है कि सुख वांछनीय है क्योंकि उसे लोग वास्तव में चाहते हैं ।
सुखवाद (परिशेष) / १५१
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