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भी आवश्यक, न्यायसम्मत तथा सत्य मानता है। उसका गुणात्मक भेद का सिद्धान्त 'गौरव के बोध' पर निर्भर है, वह बौद्धिक मापदण्ड है। सुखवाद के अनुसार हम उसी बौद्धिक मापदण्ड को स्वीकार कर सकते हैं जो सुख को इच्छा के अधीन है। किन्तु मिल का मापदण्ड इन्द्रिय-आत्मा के ऊपर बौद्धिक आत्मा को स्थापित करता है। 'गौरव का बोध' एवं 'गुणात्मक भेद' उस बौद्धिक प्रात्मा की पुकार है जो 'पूर्णतावाद' का आवाहन करती है। मिल का गुणात्मक भेद सुखवाद का पूर्ण खण्डन करता है, पूर्णतावाद का जाने-अनजाने में समर्थन करता है। ____सुखवाद का आदर्श वैयक्तिक सुख है, जो स्वार्थमूलक है। मिल ने उसे सामाजिक रूप दिया, जिस रूप में वह महान् अवश्य है, किन्तु सुखवाद नहीं है। परमार्थ को सामाजिक जीवन के लिए अनिवार्य मानकर मिल उसे आत्म-सुख से सम्बद्ध करता है। वह सामाजिक रचना के विकास और संगठन के लिए वैयक्तिक और सामान्य सख में पूर्ण संगति देखता है। किन्तु प्रश्न यह है कि ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचना कसे सम्भव है ? मिल इस समस्या का समाधान आत्मगत तर्क और विश्वास के आधार पर करता है, जिससे दार्शनिक तथा बौद्धिक सन्तोष नहीं होता। मिल के अनुसार सद्गुण अनिवार्य और आवश्यक हैं । किन्तु उन सद्गुणों को मनुष्य की व्यावसायिक बुद्धि स्वीकार करती है, न कि सम्पूर्ण प्रात्मा। मिल द्वारा स्वीकृत परमार्थ वास्तविक परमार्थवाद नहीं है, वह अहं पर आधारित प्रच्छन्न स्वार्थवाद है । मनुष्य की मूल प्रवृत्ति स्वार्थी है। उसकी व्यावसायिक बुद्धि उससे सामाजिक आचरण, नैतिक आदेश और आत्म-त्याग को स्वीकार करने के लिए कहती है क्योंकि वे उसके स्वार्थसाधन के लिए कल्याणकर हैं । सम्भव है, मिल स्वयं भी यह समझता था कि स्वार्थ और परमार्थ का ऐसा समीकरण, जो विचारों के साहचर्य पर निर्भर है, अस्वाभाविक है और चिरस्थायी नहीं है । इसीलिए शायद मिल ने स्वार्थ और परमार्थ के सम्बन्ध को आन्तरिक एवं अनन्य रूप देने के लिए शैफ्ट्सबरी, हचीसन
और ह्य म की भाँति ही कहा कि मनुष्य में 'सामाजिक एकता' की भावना निहित है, उसका स्वभाव पूर्ण रूप से सामाजिक है, वह सदैव अपने को समाज का अंग मानता है और वैयक्तिक तथा सामाजिक सुख में संगति एवं सामंजस्य है। उसके अनुसार सुख का नैतिक मूल्य सामाजिक है और सामाजिक सुख ही नैतिकता का मापदण्ड है । सुख के प्रादर्श को पूर्ण रूप से सामाजिक बना देना ही मिल के सिद्धान्त की विशिष्टता और श्रेष्ठता है । इस विशिष्टता के कारण
सुखवाद (परिशेष) | १५६
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