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और सहजज्ञानवाद एक-दूसरे से अलग होकर, अपने-आपमें अपूर्ण हैं। इस अपूर्णता को समझाने एवं दोनों के समन्वय कीर थापना करने के लिए वे मिल, काण्ट और बटलर के सिद्धान्त के प्रांशिक सत्यों को लक्षित करते हैं। उन्होंने यह स्वीकार करते हुए कि सुख ही एकमात्र ध्येय है, सुखवादियों के विरुद्ध घोषित किया कि मनुष्य स्वभाववश सदैव सुख की खोज नहीं करता । मनुष्य को सुख की खोज करनी चाहिए, यह विवेक-सम्मत है। इस प्रकार उन्होंने सुखवाद को मनोवैज्ञानिक आधार के बदले बौद्धिक आधार दिया। अथवा मनोवैज्ञानिक सुखवाद का खण्डन कर नैतिक सुखवाद एवं उपयोगितावाद को स्वीकार किया। मिल ने सैद्धान्तिक रूप से सखवादी मनोविज्ञान को उचित बतलाया; किन्तु जब वह व्यावहारिक पक्ष पर पहुंचा तो उसने सामाजिक आचरण (परार्थ) को महत्त्व दिया। सहानुभूति द्वारा कर्तव्य और आत्म-स्वार्थ में ऐक्य स्थापित किया। सिजविक व्यापक सहानुभूतिपूर्ण कर्मों की महत्ता को स्वीकार करते हैं। किन्तु मिल के विरुद्ध कहते हैं कि विरले ही व्यक्ति ऐसे मिलेंगे जो अपने परिवार और प्रिय जनों के आगे मानव-समाज की चिन्ता करेंगे। मिल सुख की इच्छा का विचार साहचर्य द्वारा 'सद्गुण के प्रति निःस्वार्थ प्रेम' में परिवर्तन मान लेता है। मिल ने जिस प्रकार कर्तव्य और स्वार्थ के विरोध को दूर किया उसे सिजविक दार्शनिक रूप से सन्तोषप्रद नहीं मानता। सिजविक कहता है कि मिल ने मनोवैज्ञानिक सुखवाद (प्रत्येक व्यक्ति अपना सुख खोजता है) और नैतिक सुखवाद (प्रत्येक व्यक्ति को जनसामान्य का सुख खोजना चाहिए) दोनों को ही स्वीकार कर एक आकर्षक किन्तु असंगतिपूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उपर्यक्त दोनों 'वाद' परस्पर-विरोधी हैं। एक प्रात्मसुख का पोषक है तो दूसरा आत्मत्याग का (विशेषकर जिस रूप को मिल ने स्वीकार किया है)। स्वार्थ और परमार्थ के प्रश्न को बैंथम सांसारिक अनुभव के नाम पर सुलझाता है और मिल आत्मत्याग के गुणगान द्वारा अथवा गौरव-बोध और विचार-सहयोग द्वारा । यह समाधान सिजविक के अनुसार अत्यन्त छिछला, अपर्याप्त और महत्त्वहीन है। कर्मों को समझने के लिए केवल अनुभव ही पर्याप्त नहीं है। उसे सामान्यबोध (common sense) से संयुक्त करना भी अनिवार्य है। अकेला अनुभव अथवा प्रयोगज्ञान अक्सर ठीक नहीं होता है। उसे उचित और निश्चित ज्ञान की ओर ले जाने के लिए सामान्य बोध की कसौटी पर कसना होता है। अनुभवमात्र पर आधारित सुखवादी गणना व्यर्थ है। उपयोगितावाद की असंगतियों और
सुखवाद (परिशेष) । १६७
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