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असामंजस्य को दूर करने के लिए सिजविक उसे नैतिक सहजज्ञान से सम्बद्ध करते हैं। सहजज्ञान की खोज में वे काण्ट के नैतिक दर्शन से प्रभावित होकर उसके मूलगत नीतिवाक्य (उस सिद्धान्त के अनुसार कर्म करो जिसके बारे में तुम यह भी इच्छा कर सको कि वह एक सार्वभौम नियम बन जाये) की सत्यता और महत्त्व को स्वीकार कर लेते हैं। उनके अनुसार यह एक ऐसा नीतिवाक्य है जिसका कि बुद्धि अनुमोदन करती है। प्रश्न यह उठता है कि इसके आधार पर वास्तविक जीवन में जो स्वार्थ और कर्तव्य के बीच द्वन्द्व उत्पन्न हो जाता है उसे कैसे सुलझाया जा सकता है ? इसमें सन्देह नहीं कि विश्व के दृष्टिकोण से अल्प सुख की तुलना में अधिक सुख विवेक-सम्मत है, चाहे अल्प सख व्यक्ति का सख क्यों न हो। किन्तु विवेक यह भी बतलाता है कि व्यक्ति को अपने सुख का वरण करना चाहिए । अर्थात् आत्म-त्याग और
आत्म-स्नेह दोनों ही विचारसंगत हैं। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के साथ ही सिजविक बटलर, काण्ट और मिल से दूर पहुंच जाते हैं । अपने उस कथन की पुष्टि करने के अभिप्राय से वे बटलर के सिद्धान्त पर पुनर्विचार कर उस परिणाम पर पहुंचते हैं कि बटलर के अन्तर्बोध में उनका सिद्धान्त ध्वनित होता है। बटलर के अनुसार चिन्तन, मनन एवं अन्तरावलोकन बतलाता है कि अन्तर्बोध का आदेश परम आदेश है। सिजविक अन्तर्बोध के आदेश को बुद्धि का आदेश कहकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि वे अन्तर्बोध, उपयोगितावाद और विचारसंगत बौद्धिक आत्म-प्रेम (rational self-love) में सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं। वे बटलर के सिद्धान्त से उन अंशों को खोजते हैं जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रात्म-प्रेम का अनुमोदन करें। बटलर एक स्थल पर कहते हैं, "स्वार्थ, मेरा अपना सख, स्पष्ट कर्तव्य है।" उसे ही बटलर बौद्धिक आत्मप्रेम कहते हैं। किन्तु वे आत्म-प्रेम तथा अन्तर्बोध में विरोध मानते हैं और कहते हैं कि वह 'शासनकी शक्ति का द्वैत' (dualism of governing faculty) है। सिजविक उसे 'व्यावहारिक बुद्धि का द्वैत' (dualism of the practical reason) कहते हैं। उनके अनुसार वही आदेश मानने योग्य है जो बौद्धिक है। बटलर से प्रभावित होकर वे कहते हैं कि मनुष्य के कर्म 37 farfarei (disinterested) 70 Fret RTFatraft (extra-regarding) प्रवृत्तियों से भी प्रेरित होते हैं जिनका वैयक्तिक सुख से कोई सम्बन्ध नहीं। यहाँ पर वे वास्तव में मिल के सिद्धान्त के मनोवैज्ञानिक आधार को छोड़ देते हैं । वे मनोवैज्ञानिक सुखवाद को दोषपूर्ण बतलाकर यह कहते हैं कि यदि
१६८ / नीतिशास्त्र
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