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principle) है। वह शुभ का वितरण करती है। पूर्व के उपयोगितावादियों की भाँति सिजविक ने सहानुभूति, विचार-साहचर्य आदि की शरण लेकर मनोवैज्ञानिक प्रमाण नहीं दिये, किन्तु तार्किक प्रमाण दिये। वे प्रमाण कहाँ तक सफल हैं इसे सिजविक के सिद्धान्त का अध्ययन ही बतलायेगा। मिल और बैंथम के सिद्धान्त की तुलना में सिजविक का सिद्धान्त बौद्धिक उपयोगितावाद (rational utilitarianism) का पोषक है। उपयोगितावाद को बौद्धिक आधार देने के प्रयास में उन्होंने उसे सहजज्ञानवाद से संयूक्त किया।
सुख ही परमशुभ है-दार्शनिक सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद के प्राधार पर सिजविक यह मानता है कि वांछनीय चेतना (desirable conscious-- ness) ही परमशुभ है । वांछनीय चेतना के द्वारा वह सामान्य शुभ या सामान्य सुख को महत्त्व देता है। अपने उस कथन की पुष्टि में वह कहता है कि यदि शान्तिपूर्वक विचार करें तो मालूम होगा कि उन आदर्शों का मूल्य, जिन्हें अधिकांश व्यक्ति महत्त्व देते हैं, सापेक्ष है। उन्हें महत्त्व इसलिए नहीं दिया जाता कि वे अपने-आपमें शुभ हैं वरन् इसलिए कि वे भावजीवी प्राणी (sentiment being) के सख का किसी-न-किसी रूप में उत्पादन करते हैं। अधिकतर यह समझा जाता है कि चेतना की कुछ स्थितियाँ-सत्य का बोध, सौन्दर्य की भावना, स्वतन्त्रता या सदगुण की प्राप्ति का संकल्प-अपने-आपमें वांछनीय हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि ज्ञान, सौन्दर्य, सद्गुण, सत्य, स्वतन्त्रता आदि सुख की प्राप्ति के लिए साधनमात्र है । वह अपने-आपमें वांछनीय नहीं है।
सार्वभौम सुख अनन्त भावजीवी प्राणियों की वांछनीय चेतना या भावना को अपनी व्यापकता, महत्ता और स्थिरता के कारण अनायास ही आकृष्ट करता है। अपनी विशालता के कारण वह कल्पना को पूर्ण तृप्त करता है । उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सार्वभौम सुख वैयक्तिक सुख का निराकरण करता है। बुद्धि बताती है कि व्यक्ति जो विश्व का एक अंग होते हुए भी अपना निजत्व रखता है-का अपना सुख उसका चरम ध्येय है। साथ ही वह अनन्त भावजीवियों के सुख का निराकरण नहीं कर सकता है क्योंकि विश्व में वही एकमात्र भावजीवी नहीं है। अतः उसके लिए वास्तविक रूप से विवेक-सम्मत यह है कि वह अपने सुख का दूसरों के अधिकतम सुख के लिए त्याग करे । जीवन का ध्येय एक ही है और वह सुख है । किन्तु बुद्धि बतलाती है कि उस सुख को वैयक्तिक दृष्टिकोण और समष्टि के दृष्टिकोण से समझना चाहिए। उन दोनों में भेद नहीं है। दोनों ही समान रूप से विवेकसम्मत हैं । अतः सिजविक
सुखवाद (परिशेष) | १७१
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