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शुभ का क्या स्वरूप है जिसे प्राप्त करना उसके लिए उचित है ? प्राचीन सुखवाद ने जीवन के ध्येय को समझना चाहा किन्तु अर्वाचीन सुखवाद ने उस ध्येय को स्वीकार करते हुए कर्तव्य के प्रश्न को भी उठाया । मूलतः दोनों का प्रश्न एक ही है । दोनों ने जानना चाहा कि जीवन में सुख का क्या स्थान है । वास्तव में चरम ध्येय का प्रश्न प्रात्मा का प्रश्न है । उस आत्मा का क्या स्वरूप है जिसकी पूर्णता और कल्याण के लिए प्रयास किया जाता है ? शुभ का क्या स्वरूप हैबौद्धिक या भावनात्मक ? सुखवादियों ने मनुष्य को भावजीवी मानते हुए सुख को शुभ कहा है । उन्होंने विभिन्न नियमों की, कर्मों के औचित्य - अनौचित्य की, कर्तव्य - अधिकार एवं मानव जीवन के सम्पूर्ण कार्यकलापों की व्याख्या इसी आधार पर की है । इसमें सन्देह नहीं कि परम ध्येय की ऐसी स्पष्ट स्वाभाविक व्याख्या प्रथम दृष्टि में श्राकर्षक लगती है । यही कारण है कि कई प्रबुद्ध विचारकों - पैले, बेंथम, मिल, स्पेंसर, सिजविक श्रादि - का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ और उन्होंने सुख को पूर्ण प्राधिपत्य देना चाहा । किन्तु श्रात्मा के भ्रान्तिपूर्ण मनोवैज्ञानिक ज्ञान को अपनाने के कारण एवं उसके गूढ़ दार्शनिक रूप को नहीं समझ सकने के कारण उनका सिद्धान्त खण्डनीय और असिद्ध हो गया । मिल और सिजविक के सिद्धान्त की असंगतियाँ उसका स्पष्ट प्रमाण हैं । सिजविक ने उसे बौद्धिक श्राधार देने का प्रयास किया किन्तु वह असफल रहे । वह उन भूलों से अपने को मुक्त नहीं कर पाये जो मूलगत सुखवाद ने की हैं । आत्मा सुखप्रद अनुभवों का समुदाय नहीं है । स्वार्थ और परमार्थ में व्यापक दृष्टि से कोई विरोध नहीं है । प्रात्मा का ही पूर्ण रूप विश्वात्मा है । आत्मा के सत्य स्वरूप का ज्ञान पूर्णतावाद की स्थापना करता है। वह सुखवाद की संकीर्ण दीवार को तोड़ विश्ववाद में प्रवेश करता है । उसके अनुसार जीवन का ध्येय मात्म- पूर्णता है । आत्म- पूर्णता विश्वात्मा की प्राप्ति है । पूर्णतावादियों ने इस सत्य को माना है । श्रात्मा के सत्य स्वरूप को न समझ सकने के कारण ही सुखवादी व्यक्ति और समाज के अभिन्न सम्बन्ध को नहीं समझ पाये । उन्होंने स्वतः एक काल्पनिक रोग उत्पन्न किया और फिर उसका उपचार खोजना चाहा। सुखवाद के पोषक जितने भी विचारक हैं उन्होंने सबसे भयंकर भूल श्रेय (good) और प्रेय ( pleasure ) के सम्बन्ध में की है । इसमें सन्देह नहीं कि श्रेय प्रेय अवश्य है किन्तु प्रेय श्रेय नहीं है । श्रेय प्रेय होने पर भी प्रेय से ऊँचा है। इन्द्रिय-सुख मात्र प्रेय के अधीन है। श्रेय प्रेय से अधिक उच्च और व्यापक है । वह परमशुभ है ।
१७६ / नीतिशास्त्र
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