________________
करना ही ध्येय है। शुभ आचरण अंगी और वातावरण के बीच सामंजस्य स्थापित कर सुख का उत्पादन करता है । पूर्ण रूप से शुभ आचरण पूर्ण समत्व की स्थापना करनेवाला आचरण है, जो विकास की अन्तिम स्थिति का सूचक है। विकासक्रम के सब आचरण लगभग प्रांशिक रूप से शुभ और आंशिक रूप से अशुभ हैं । सापेक्ष रूप से वह आचरण शुभ है जो अन्तत: दु:ख से अधिक सुख देता है । उदाहरणार्थ, शल्यचिकित्सा के दुःख और सुरापान के सुख को यदि उनके परिणाम के सम्बन्ध में देखें तो शल्य-चिकित्सा सुरापान से अधिक शुभ है। इसी प्रकार अच्छा भोजन करना, विवाहित होना, सन्तति का संवर्धन करना अपनी अपूर्णताओं के बावजूद शुभ और लाभप्रद हैं। इस प्रकार सुखवादियों की भांति स्पेंसर भी शुभ कर्म को सुखप्रद परिणाम से युक्त करता है। पूर्ण विकसित समाज में सुख और स्वास्थ्य परस्पर सम्बन्धित हैं । सुख जीवनवृद्धि का सूचक है, दुःख ह्रास का । प्रश्न यह है कि सुख शुभ क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि वह व्यक्तिं और वातावरण के बीच सामंजस्य का सूचक है। सुख प्राणशक्ति की वृद्धि और सबलता का परिणाम है। वह सामंजस्य का सूचक है। दुःख अंगी के वातावरण के साथ असामंजस्य का सूचक है। इसमें अंगी को जीवन-धारण की आशा कम होती है। जीवशास्त्र और अनुभव बतलाता है कि सुखप्रद जीवन शुभ है। यह जीवन-संरक्षण में सहायक है। सुख के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की इच्छा करना अपने विनाश की इच्छा करना है। . सन्निकट ध्येय और परम ध्येय : नैतिक मापदण्ड-स्पेंसर ने सुखवादियों के साथ यह स्वीकार किया कि नैतिक ध्येय सुख है। किन्तु जीवशास्त्री होने के नाते यह भी मानता है कि प्राकृतिक ध्येय शारीरिक स्वास्थ्य है । ये दोनों ही विरोधी कथन हैं । इस विरोध को दूर करने के लिए वह अपने सिद्धान्त को सन्निकट ध्येय और परम ध्येय की धारणा से युक्त करता है। वह कहता है, परम ध्येय सुख है; किन्तु सन्निकट अथवा तात्कालिक ध्येय शारीरिक स्वास्थ्य है। परम ध्येय की प्राप्ति भली-भांति तभी सम्भव है जब उसे भूले रहें और अपना. सम्पूर्ण ध्यान उन परिस्थितियों पर केन्द्रित करें जिनसे वह प्राप्त होता है। इस आधार पर स्पेंसर सख को परम ध्येय मानते हए शारीरिक स्वास्थ्य को महत्त्व देता है । जीवशास्त्र बतला सकता है कि कौन-से कर्म सुख का उत्पादन करते हैं और कौन-से कर्म दुःख का । जीवशास्त्र के आधार पर आचरण के उन नियमों का प्रतिपादन कर लेना चाहिए जिनका सुख-दुःख से प्रत्यक्ष रूप से कोई
विकासवादी सुखवाद | १८३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org