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विकास व्यक्तियों को उस स्थिति में पहुंचा देगा जहां उन्हें प्रात्म-त्याग में प्रानन्द मिलेगा।........ .... ..... . . . ... नैतिक नियम अनुभव-निरपेक्ष नहीं हैं-उपयोगितावादियों के विरुद्ध स्पेंसर कहता है कि नैतिक नियम सुख दुःख के अनुभवों पर आधारित अनुमानों का सामान्यीकरण मात्र नहीं हैं। इन परमार्थी प्रवृत्तियों को 'विचार-सहयोग' द्वारा नहीं, 'प्राकृतिक चयन' और विश्व-विकास द्वारा ही समझाया जा सकता है; अथवा नैतिक नियम अपने मूल रूप में उद्भूत सत्य है । इनका जैव और समाजशास्त्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप निर्माण हुआ है। उचित नैतिक नियमों का प्रतिपादन करने के लिए भी जीवशास्त्र और समाजशास्त्र से सहायता लेनी चाहिए। उनके नियमों से नैतिक नियमों का निगमन करना चाहिए। नैतिक नियमों की उत्पत्ति बतलाती है कि वे अनुभव-सापेक्ष नियम हैं। धीरे-धीरे 'विकास-क्रम में ये अनुभव-सापेक्ष नियम ही,मनुभव-निरपेक्ष नियमों का रूप ग्रहण कर लेते हैं। विगत जीवन का इतिहास. बतलाता है कि विकास-क्रम में सरल
और निम्न प्रादर्श की भावनाएं अधिक जटिल उच्चादों की भावनाओं द्वारा नियन्त्रित होती जा रही हैं । बर्बर सभ्यता के युग में मनुष्य की प्रवृत्तियाँ भौतिक नावश्यकताओं तथा भय (जीवन-संरक्षण की प्रवृत्ति) से नियन्त्रित हई। धीरेधीरे झुण्ड, समाज, जाति, धर्म, राजनीति आदि के नियमों ने इन्हें शासित किया । जीवन-संघर्ष में नये गुणों का प्रादुर्भाव हुआ। व्यक्ति तथा जाति के जीवन के संरक्षण के लिए उपयोगी और सहायक गुण ही नैतिक मान्यताओं, उच्च भावनाओं, सहानुभूति, प्रात्मत्याग प्रादि के रूप में मिलते हैं । जीव-रचना
अंग्री) को वातावरण के साथ संयोजित करनेवाला प्राचरण जिन व्यक्तियों का अभ्यास बन जाता है वही प्राकृतिक चयन में जीवित रहते हैं। पिता जिन गुणों को अभ्यासगत विशेषताओं के रूप में पाता है उन गुणों को उसकी.सन्तति स्वाभाविक प्रवृत्ति के रूप में पाती है । वंशानुगत होने के कारण वे गुण स्वाभा"विक, सहजप्रेरित एवं सहजात विचारों. (अनुभव-निरपेक्ष) का रूप प्राप्त कर लेते हैं। अपने मूलगत रूप में वे अनुभव-सापेक्ष तथा असंख्य पीढ़ियों द्वारा अजित अनुभवों के परिणाम हैं । जो कुछ भी नाज व्यक्ति है, उसका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, कलात्मक, नैतिक व्यक्तित्व उसे दाय रूप में प्राप्त हमा है। पैतृक सम्पत्ति के रूप में पाने के कारण उसके विचार अनुभव-निरपेक्ष लगते हैं । पूर्वजों के अनुभवों ने जिन गुणों को उपयोगी और अनिवार्य (व्यक्ति अथवा जाति के जीवन के लिए) पाया उन्हीं को उनकी आगामी पीढ़ी ने मौलिक नैतिक
१८८ / नीतिशास्त्र
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