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कहते हैं कि भावजीवियों के परमशुभ की व्यवस्थित संगतिपूर्ण व्याख्या यही कहकर दी जा सकती है कि सार्वभौम सुख ही सामान्य व्येय है। .
सुख-वितरण की समस्या : न्याय, प्रात्मप्रेम, परोपकारिता-जीवन का ध्येय भावनात्मक ध्येय एवं सुख है । सुख शुभ है। व्यक्तियों के शुभ का ज्ञान बतलाता है कि वह समष्टि का सार्वभौम शुभ (total or universal) good) है। व्यक्ति और उसके अनुभव उस शुभ के निर्माणात्मक अंग हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह शुभ की परम संख्या तक वृद्धि करे । उसके लिए उन नियमों के पालन करने की आवश्यकता है जो अधिकतम परिमाण में सार्वभौम शभ के उत्पादन में सहायक हों। सिजविक यहाँ पर उन नियमों की अोर से सावधान करते हैं जो कि सर्वसामान्य के बोध का समर्थन पाने के कारण प्रायः नैतिक लगते हैं। स्वतःसिद्ध नैतिक नियमों के विधान को समझने के लिए दार्शनिक सहजज्ञान आवश्यक है। सिजविक कहते हैं कि जब अत्यन्त स्पष्ट और निश्चित सहजलब्ध नैतिक नियमों पर चिन्तन करता हूँ तब मुझे जितने स्पष्ट और निश्चित रेखागणित या गणित के स्वतःसिद्ध वाक्य लगते हैं उतने ही स्पष्ट और निश्चित, निस्सन्देह, यह भी लगता है कि मेरे लिए यह उचित और बौद्धिक है कि मैं दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करूं जैसा कि मैं समान परिस्थिति में सोचता हूं कि मेरे प्रति होना चाहिए, और मुझे वही करना चाहिए जो सार्वभौम शुभ या सुख का उत्पादन करे । यह सिजविक को न्याय या समानता का स्वतःसिद्ध सिद्धान्त (The axiom of Justice or Equality) देता है । न्याय का अर्थ केवल नियम के अनुसार कर्म करना नहीं है । वह उससे भी व्यापक तथा समानता का पोषक है। न्याय अन्ध-समानता में विश्वास नहीं करता। उसकी समानता निष्पक्षता की सूचक है । न्याय का सिद्धान्त बताता है कि व्यक्ति समान हैं और एक ही वर्ग की समग्रता के अंग हैं। व्यक्ति का सम्पूर्ण शुभ उस वर्ग की समग्रता के शुभ को प्रस्तुत करता है। न्याय बताता है कि व्यक्ति अथवा जाति के सम्पूर्ण सुख अथवा अधिकतम सुख को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए तथा जीवन के सब क्षणों को समान महत्त्व देना चाहिए। सिजविक में दूसरा नीतिवाक्य बौद्धिक प्रात्मप्रेम या व्यावहारिक विवेक (rational self-love or prudence) का मिलता है। इसके अनुसार व्यक्ति को अपने शुभ को ध्येय बनाना चाहिए। व्यक्ति को अपने चेतन जीवन में सब अंगों को निष्पक्ष रूप से समान महत्त्व देना चाहिए । आगामी प्रत्येक क्षण को उतना ही महत्त्व देना चाहिए जितना कि वह वर्तमान को देता है। क्षुद्र वर्तमान सुख को
१७२ / नीतिशास्त्र
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