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सुख के प्रति आवेग अत्यन्त प्रवल है तो वह अपने ध्येय को प्राप्त नहीं कर सकता। उनके अनुसार सुख इच्छा का स्वाभाविक विषय नहीं है, वह उचित विषय है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद और नैतिक सुखवाद प्रापस में विरोधपूर्ण हैं । यदि मनोवैज्ञानिक सुखवाद यह कहता है कि मेरे लिए अपने अधिकतम सुख के अतिरिक्त किसी अन्य विषय को लक्ष्य (जैसे अधिकतम संख्या का सुख) बनाना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से असम्भव है तो उस असम्भव विषय को कर्तव्य बतलाना भ्रान्तिपूर्ण है। वही कर्म नैतिक कर्तव्य के अन्तर्गत आ सकते हैं जिनको करना व्यक्ति के लिए सम्भव है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद वह सिद्धान्त है जो अन्य सब विरोधी नैतिक सिद्धान्तों का खण्डन करता है। अतः उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह कहना कि 'अपने अधिकतम सुख की खोज करना व्यक्ति का कर्तव्य है' तभी युक्तिसंगत हो सकता है जबकि उसके लिए मनोवैज्ञानिक रूप से अन्य विषयों की खोज करना भी सम्भव हो, अन्यथा उपर्युक्त कथन व्यर्थ है। कर्तव्य के स्वरूप को समझाने के लिए यह समझाना आवश्यक है कि एकमात्र सुख की प्रेरणा से व्यक्ति कर्म नहीं करता। प्रेरणाएँ कई हैं। उचित प्रेरणा (कर्तव्य) का अन्य प्रेरणानों से विरोध होने पर भी व्यक्ति उसे चुनता है, उसके अनुकूल कर्म करता है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद नैतिक स्वार्थ-सुखवाद (हॉब्स) की स्थापना तक नहीं कर सकता । यदि प्रत्येक क्षण व्यक्ति अधिक सुख की चिन्ता करे तो वह अपने ही अधिकतम सुख का नाश करेगा। सुख-प्राप्ति की तीव्र इच्छा के कारण वह उस सुख से संयुक्त परिणामों को नहीं समझ पायेगा और शीघ्रता के कारण उस तात्कालिक सुख का वरण कर लेगा जो कि क्षणिक और निकट है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद को त्याज्य घोषित करके तथा नैतिक सुखवाद को मानते हुए सिजविक सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद की स्थापना करते हैं। वे इस मनोवैज्ञानिक सत्य को 'मानते हैं कि मनुष्य के कर्म निःस्वार्थ प्रवृत्तियों द्वारा भी प्रेरित होते हैं। उदाहरणार्थ, परोपकार (benevolence) निःस्वार्थ प्रवृत्ति है। मनुष्य में दूसरों के सुख के लिए कर्म करने की इच्छा है । उसको सन्तुष्ट करने के लिए वह अपने स्वार्थ का निराकरण करना अपना कर्तव्य मानता है। मनुष्य में उचित और विवेक-सम्मत कर्म करने की इच्छा होती है। यह इच्छा बटलर के अन्तर्बोध के आदेश अथवा काण्ट के नैतिक नियम के प्रति आदर की धारणा के समान है। इस सत्य का ज्ञान सिजविक के सिद्धान्त को बटलर के सिद्धान्त से युक्त कर देता है । मूलगत नैतिक सहजज्ञान सामान्य सुख की वृद्धि को सर्वोच्च
सुखवाद (परिशेष) | १६९
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