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वह सुखवाद से दूर तो हट जाता है, साथ ही वह सरलता और स्पष्टतापूर्वक सामान्य सख की धारणा को भी नहीं समझा पाता है। वह सामाजिक अंगांगिगाव (organic relation) की धारणा पर पहुंचने पर भी नहीं पहुंच पाता। परम स्वार्थवाद को अपना लेने के कारण वह साधिकार एवं निश्चयात्मक रूप से यह नहीं कह पाता कि समाज और व्यक्ति का सम्बन्ध अनन्य है।
. नैतिक सुखवाद की आलोचना
मनोवैज्ञानिक सुखवाद से अधिक व्यापक : दोहरी कठिनाई-मनोवैज्ञानिक सुखवाद ने यह जानना चाहा कि जीवन का ध्येय क्या है ? शुभ क्या है ? इसी प्रश्न को नैतिक सुखवाद ने यह कहकर सम्मुख रखा : व्यक्ति का क्या कर्तव्य है ? दोनों का प्रश्न मूलतः एक ही है। दोनों के उत्तर भी समान हैं और दोनों का लक्ष्य भी एकमात्र सख ही है। किन्तु फिर भी उनके प्रतिपादन के ढंग में, उनकी प्रणाली और कर्तव्य की रूपरेखा में अन्तर है। उनमें प्राचीनता और अर्वाचीनता का भेद स्पष्ट है। नैतिक संखवाद ने आशावाद और सुख के भावात्मक पक्ष को सम्मुख रखा है, उचित ज्ञान के द्वारा सुख की प्राप्ति को सम्भव बतलाया है। उसने अपने क्षेत्र को वैयक्तिक दृष्टिकोण तक ही सीमित महीं रखा है वरन उसे मानवतावादी बनाया है । मनोवैज्ञानिक सखवाद से इस भाँति आगे बढ़ने पर भी नैतिक सुखवाद अपने सिद्धान्त में सफल नहीं हो सका है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद पर अपने सिद्धान्त को आधारित करने के कारण उसने अपने सिर पर विपत्तियों का पहाड़ ले लिया है । मनोवैज्ञानिक सुखवाद की मूलमत भूल-मनोवैज्ञानिक भ्रान्ति के कारण वह उसी की तरह खण्डनीय और माधारहीन तो हो ही जाता है, उस पर वह विरोधी विचारधारानों को मिलाने का भी व्यर्थ प्रयास करता है। इन्द्रियजन्य ध्येय को स्वीकार करने के पश्चात् वह उपयोगितावाद के सहारे व्यक्ति और समाज के प्रश्न को उठाता है; परम स्वार्थ के साथ परार्थ को मिलाना चाहता है; सद्गुण और व्यावसायिक बुद्धि में एकरूपता स्थापित करने की चेष्टा करता है ।
स्वार्थ और परार्थ का विरोधपूर्ण सामंजस्य–मिल और बैंथम के सिद्धान्त में जो बात अत्यधिक खलती है वह है विचारों की असंगति । इसका कारण यह है कि उन्होंने मनोवैज्ञानिक सुखवाद पर अपने सिद्धान्त को आधारित किया। मनोवैज्ञानिक सूखवाद की भ्रान्तियों से तो उनका सिद्धान्त क्रान्त हो ही जाता है, वह नयी विपत्तियों को भी मोल ले लेते हैं। मनोवैज्ञानिक सखवाद के
१६० / नीतिशास्त्र
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