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के लिए केवल इस भावना की शरण लेकर ही सन्तुष्ट नहीं होता। वह उसे स्वाभाविकता का दृढ़ आधार देने का प्रयास कर 'आन्तरिक आदेश' द्वारा मनुष्यों को सामाजिक एकता के सूत्र में बांधता है.। बैंथम ने 'नैतिक आदेशों को अनिवार्य और आवश्यक माना और उन्हीं के द्वारा सामाजिक आचरण को समझाया। मिल बैंथम के 'प्रादेशों' को 'बाह्य प्रादेश' कहता है । मनुष्य दण्डित होने के भय से एवं आत्म-सुख के कारण आदेशों का पालन करता है। मिल कहता है कि आदेशों द्वारा मनुष्य के नैतिक आचरण को भली-भाँति नहीं समझा जा सकता । यह व्यक्ति के सामाजिक आचरण का गौण स्पष्टीकरण मात्र है । मनुष्य की प्रवृत्तियों का अध्ययन बतलाता है कि उसमें सजातीय भावना (fellow feeling) है, जिसे वह स्वाभाविक भावना भी कहता है। मिल का विश्वास है कि मनुष्य के सामाजिक आचरण के मूल में यही भावना है। इस प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति अपने तथा समाज के बीच अभिन्नता देखता है । उसका सुख सामाजिक सामंजस्य पर निर्भर होता है। मिल साथ ही यह भी मानता है कि अत्यन्त स्वार्थी व्यक्तियों के लिए उन्हीं का स्वार्थ सब-कुछ है। उनकी स्वार्थान्धता 'सजातीयता की भावना' को दबाकर नगण्य कर देती है। किन्तु सुसंस्कृत और सविकसित व्यक्ति उसके बारे में पूर्ण रूप से सचेत रहता है। ऐसा व्यक्ति सामाजिक सुख में ही अपने सुख को निहित पाता है और उस भावना का आदेश ही 'आन्तरिक आदेश अथवा नैतिक आदेश' है। उसे मिल अन्तर्बोध (conscience) का आदेश भी कहता है । आन्तरिक आदेश सामाजिक कर्तव्य का मार्ग दिखाता है । वह उपयोगितावादी नैतिकता का मूल आधार है । सामाजिक कर्तव्य न करने पर वह व्यक्ति को प्रात्मग्लानि देता है और सर्वसामान्य के सुख का उत्पादन करने पर ही व्यक्ति को अपना जीवन सुखी और सफल लगता है । मिल का प्रान्तरिक आदेश से अभिप्राय अन्तर्बोध द्वारा प्रारोपित सुख-दुःख से है । अन्तर्बोध के सुख (आत्मसुख) को प्राप्त करने के लिए ही सामाजिक चेतनाशील व्यक्ति नैतिक कर्म करता है । वह शुभ कर्म इसलिए नहीं करता कि वे अपने-आपमें शुभ और नैतिक हैं बल्कि पश्चात्ताप और
आत्मग्लानि से बचने के लिए ही वह इनकी ओर प्रेरित होता है। किन्तु जिनमें अन्तर्बोध की प्रेरणा मृतप्राय है वे बाह्य आदेश के कारण ही सर्वसामान्य के सुख की परवाह करते हैं।
उपयोगितावाद : उच्च प्रादर्श का पोषक-मिल ने उपयोगितावाद को प्रचलित तथा व्यापक रूप देना चाहा। बैंथम के सिद्धान्त के विरुद्ध जो आपत्तियाँ
१५४ / नीतिशास्त्र ...
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