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के अनुरूप ही उसकी सुख की धारणा होती है। बेंथम ने सुख में गुणात्मक भेद न मानकर स्थूल और इन्द्रियपरक सुखवाद का स्वागत किया । उसके आलोचकों ने इस पर अत्यन्त प्रापत्ति की, उसके दर्शन को शूकर- दर्शन ( pig-philosophy) कहकर उसका तिरस्कार किया । सच तो यह है कि बेंथम उपयोगितावाद को स्पष्ट रूप से नहीं समझा पाया । वह इस तथ्य का दार्शनिक तथा तार्किक रूष से स्पष्टीकरण नहीं कर पाया कि व्यक्ति को क्यों सामाजिक सुख की परवाह करनी चाहिए । वह सामाजिक नैतिकता के आधार को नहीं समझ पाया । इसका मूल कारण यह है कि उसने स्वार्थ और परमार्थ में परम भेद देखा और मनोवैज्ञानिक सुखवाद को पूर्ण रूप से ग्रहण कर लिया । किन्तु फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि बेंथम उपयोगितावाद का प्रवर्तक था । वह प्रथम विचारक था जिसने कि नैतिक क्षेत्र में उपयोगिता के सिद्धान्त को निश्चित रूप दिया, उसके लक्ष्य की रूपरेखा बनायी ।
मिल
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उपयोगितावाद के प्रचारक के रूप में— उपयोगितावाद को लोकप्रिय बनाने का श्रेय मिल' को है । उसने बैंथम के आलोचकों एवं उपयोगितावाद को शूकरदर्शन कहनेवालों के विरुद्ध उसकी श्रेष्ठता को समझाकर उपयोगितावाद का प्रसार और प्रचार किया । मिल के सिद्धान्त में हमें उपयोगितावाद के प्रति जो अन्ध-समर्थन तथा तार्किक और दार्शनिक असंगतियाँ मिलती हैं उसका कारण यह है कि मिल का उपयोगितावाद उसके स्वतन्त्र बौद्धिक चिन्तन का अनिवार्य परिणाम नहीं है । उसने इसे पैतृक सम्पत्ति के रूप में अपने पिता (जेम्स मिल ) और उनके मित्र बेंथम से प्राप्त किया । जेम्स मिल और बेंथम ने मिल को बचपन से ही उपयोगितावाद के साँचे में ढाला। मिल ने अपने पिता की तथा बेंथम की मृत्यु के पश्चात् एक ओर तो उपयोगितावादी परम्परा को निभाया और दूसरी ओर वह सत्य के प्रति जागरूक रहा । उसने विरोधी मतों के सुदृढ़ तत्त्वों (सत्य अंशों) को स्वीकार किया और साथ ही वह उपयोगितावाद का परम अभिभावक बना रहा । ऐसा करने के कारण अनजाने में ही उसने अपने सिद्धान्त में अनेक असंगतियों को स्थान दे दिया । और इस कारण वह उपयोगितावाद को दृढ़ सिद्धान्त के रूप में स्थापित करने में असमर्थ रहा ।
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1. John Stuart Mill, 1806-1873.
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सुखवाद ( परिशेष) / १४६
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