________________
sions) हैं जिनके द्वारा उसकी नाप करते हैं ? बैंथम के पूर्व पैले (Paley): और अन्य सुखवादियों ने सुखों के परिमाण को नापने के लिए दीर्घकालीनता और तीव्रता का भेद माना था । किन्तु बैंथम उनके अतिरिक्त पाँच प्रायाम और मानता है। उसके अनुसार सुख के परिमाण को नापने के लिए सात आयामों को समझना आवश्यक है : तीव्रता (intensity), दीर्घकालीनता (duration), सन्निकटता (nearness), निश्चितता (certainty), विशुद्धता अर्थात् जिस सुख में दुःख का लेशमात्र मिश्रण न हो (purity), उत्पादकता, जो अन्य सुखों का उत्पादन कर सके (fruitfulness) और व्यापकता (extent) । बैंथम के ये मापदण्ड सुखवादी गणना (hedonistic calculus) अथवा नैतिक गणित (moral arithmetic) के नाम से प्रख्यात हैं। उसके अनुसार नैतिक गणित यह बतला सकता है कि कौन सख परिमाण में अधिक है एवं अधिक वांछनीय है। सुख को चुनते समय यदि हम विवेक से काम लें तो अधिक वांछनीय सुख को चन सकते हैं।
व्यापकता-बैंथम ने अपने नैतिक गणित में व्यापकता को स्थान दिया। किन्तु व्यापकता को कैसे तोल सकते हैं ? उसके क्या अर्थ हैं ? यदि व्यापकता से अर्थ व्यक्तियों की सुखभोग करनेवाली संख्या से है तो स्वार्थ सुखवाद कैसे 'टिक सकता है ? एक व्यक्ति के सुख की तुलना दूसरे व्यक्ति के सुख से करना सम्भव नहीं है। सुख एक भावना है, उसका स्वरूप व्यक्तिगत है। चरित्र, प्रकृति, अभ्यास, आयु, द्वन्द्व-भावना, मानसिक स्थिति, वातावरण, परिस्थिति, जलवायु आदि के अनुरूप प्रत्येक व्यक्ति की सुख की भावना भिन्न है। अतः वह जो एक के लिए सुखप्रद है, दूसरे के लिए दुःखप्रद हो सकता है। ऐसे भी व्यक्ति हैं जिनके लिए दूसरों का सुख नगण्य है अथवा जिनमें इतनी अधिक ईर्ष्या है कि दूसरे का सुख उनके जीवन को दु:खमय बना देता है। ऐसी स्थिति में किसी एक सुख को मान्य मान लेना या किसी एक सुख को सार्वजनीन रूप देना सम्भव नहीं है । यदि व्यापकता का यह अर्थ है कि हम दूसरों के सुख को अधिक महत्त्व दें अथवा अधिकतम संख्या के सुख को स्वीकार करें तो सुखवाद के मूल . सिद्धान्त को छोड़ना पड़ेगा।
त्रुटियाँ : विशेषता-अपने नैतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिए बैंथम इस मनोवैज्ञानिक मान्यता को स्वीकार करता है कि इच्छा का एकमात्र विषय सुख अथवा दुःख से निवृत्ति है । प्रत्येक व्यक्ति इस स्वाभाविक मान्यता के कारण उस आचरण को स्वीकार करता है जिससे उसे अधिकतम सुख की
सुखवाद (परिशेष)./ १४७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org