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आनन्द की अोर सुकरात ने संकेत किया वह इन्द्रिय-सुख पर निर्भर है।
जीवन का ध्येय : तीव्र इन्द्रियसुख-~इस प्रकार उसने इन्द्रियपरक सुखवाद या विशुद्ध सुखवाद (Pure Hedonism) का प्रतिपादन किया। वह मनुष्यस्वभाव की दुहाई देकर कहता है कि मनुष्य सदैव सुख की खोज करता है । जहाँ तक सुख के स्वरूप का प्रश्न है सब सुख जाति में समान होते हैं। उनमें केवल मात्राओं अथवा तीव्रता का अन्तर होता है। तीव्रता के आधार पर ही एक सुख दूसरे सुख से अधिक वांछनीय और शुभ माना जाता है। शारीरिक सूख क्षणिक होने पर भी मानसिक सुख से अधिक तीव्र होते हैं । अतः वे अधिक वांछनीय हैं। तीव्र इन्द्रियसुख ही जीवन का ध्येय है। - सुख का स्वरूप : तात्कालिक, अनुभवगम्य, अधिक परिमाण-ऍरिस्टिपस ने सोफिस्ट्स के सापेक्षवाद को स्वीकार किया। उसने भी यह माना कि मनुष्य केवल अपनी संवेदनामों और अनुभवों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। तात्कालिक संवेदन ही ज्ञान का एकमात्र विषय है। मनुष्य का भविष्य अनिश्चित है। अनुभव बताता है कि तत्कालीन इन्द्रियसुख एकमात्र ज्ञेय शुभ है। अन्य कोई सुख इससे अधिक महान् नहीं है। मनुष्य तात्कालिक सुख की परवाह करता है। तात्कालिक शारीरिक सुख अनुभवगम्य सुख है। अधिक-से-अधिक परिमाण में सुख भोगना ही परम ध्येय है । आचरण का मूल्य सुख के परिमाण पर निर्भर है।
सुख कर्मों का एकमात्र प्रेरक-मनुष्य की सहज प्रवृत्ति और स्वभाव सदैव सुख की खोज करते हैं। उसके कर्मों का एकमात्र प्रेरक सुख है। मनुष्यों की प्ररणा में कोई अन्तर नहीं है; सब सुख की प्रेरणा से प्रेरित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अधिक-से-अधिक सुख की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है। किन्तु अपने ज्ञान और अनुभव के अनुरूप कुछ लोग अधिक परिमाण में सुख प्राप्त करते हैं पौर कुछ कम । शुभ प्राचरण वही है जो कि विशिष्ट परिस्थिति में अत्यधिक सुख प्राप्त कर लेता है। . ___ कर्मों के तत्कालीन परिणाम महत्त्वपूर्ण : शुभ, अशुभ के सूचक--इस आधार पर ऍरिस्टिपस ने सुकरात के विरुद्ध यह भी कहा कि कर्मों के सुदूर भविष्य के परिणामों को प्रांकने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को तत्कालीन सुख की चिन्ता करनी चाहिए। कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को उनके परिणामों द्वारा आँकना चाहिए। वही कर्म शुभ है जिसका परिणाम सुखप्रद है। कर्म अपनेआपमें शुभ-अशुभ नहीं हैं। परिणामों द्वारा ही उनका मूल्यांकन कर सकते हैं। सुखप्रद परिणामों को महत्ता देने के लिए वह यहां तक कहता है कि चोरी,
१२४ / नीतिशास्त्र
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