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उसकी प्राप्ति के लिए प्रत्येक प्राणी प्रयास करता है । अतः यह शुभ है । सुख आचरण का परम मापदण्ड है । यही नीतिशास्त्र का प्रथम सिद्धान्त है । 'दुःख से बचाव, सुख की खोज' अथवा 'सुख के प्रति भासक्ति, दुःख के प्रति विरक्ति' यह सार्वभौम मान्यता है । जीवन का परमध्येय सुख है । सु और दुःख कर्म की एकमात्र प्रेरणाएँ हैं । सार्वभौम अनुभव यह बताता है कि प्रत्येक प्राणी कर्मों के औचित्य और अनौचित्य को भावना के मापदण्ड से तौलता है अथवा सुख-दुख द्वारा कर्मों के औचित्य अनौचित्य को निर्धारित करता है। उन्हीं के श्राधार पर यह बताया जा सकता है कि मनुष्य के लिए क्या वांछनीय है । उसे किस मार्ग को अपनाना चाहिए, किसका त्याग करना चाहिए ।
उचित सुखों को पनाने के लिए विवेकबुद्धि प्रावश्यक — ऍपिक्यूरस का यह कहना था कि जीवन का ध्येय सुख है और सब सुख श्राभ्यन्तरिक रूप से शुभ हैं। साथ ही वह यह भी मानता था कि सुखों की श्रेष्ठता तथा अधिक ' वांछनीयता को व्यावसायिक बुद्धि द्वारा ग्रांकना आवश्यक है । उसने यह स्पष्ट रूप से समझाया कि नैतिक जीवन के लिए बुद्धि अस्तित्वहीन और अर्थशून्य नहीं है, उसका महत्त्व है । ऍपिक्यूरस ने अपने सिद्धान्त में सिरेनक्स की दो विरोधी धारणाओं - क्षणिक सुख और आत्म-संयम — में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया । उसने स्थूल सुखवाद के साथ विवेकबुद्धि को महत्त्व दिया । इस प्रकार संस्कृत सुखवाद में सिरेनैक्स और सुकरात के विवेक की धारणा को एकता के सूत्र में बाँधा गया है। शुभ जीवन बुद्धिहीन नहीं है । जीवन का ध्येय क्षणिक सुख नहीं, सुखी जीवन है । यहाँ पर उसने प्लेटो और अरस्तू के इस कथन को कि बुद्धि जीवन की मार्गदर्शी है, सुखवादी रूप दिया है । जीवन का ध्येय सुख है । बुद्धि उस ध्येय को प्राप्त करने के लिए साधन देती है । अतः सिरेनैक्स के क्षणिक सुख के विरुद्ध वह कहता है कि यदि भविष्य में अधिक अथवा स्थायी सुख की सम्भावना हो तो उसके लिए तत्कालीन सुख का त्याग उचित है ।
सुख : दो प्रकार - ऐन्द्रियक, बौद्धिक - व्यावसायिक बुद्धि के इस प्रदेश को सम्मुख रखकर ऍपिक्यूरस ने सुख का दो भागों में विभाजन किया । इन्द्रिय - या सक्रिय सुख और बौद्धिक या निष्क्रिय सुख । इन्द्रिय सुख प्रत्यक्ष, सजीव, तीव्र और क्षणिक होता है, बौद्धिक सुख शान्त, गम्भीर और चिरस्थायी होता है । बुद्धि बताती है कि मनुष्य को सुखी जीवन बिताना चाहिए । इस अर्थ में क्षणिक और आवेगपूर्ण सुख जीवन का ध्येय नहीं है । अतः सुख का मूल्यांकन केवल तीव्रता
१२६ / नीतिशास्त्र
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