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करता है । अथवा सुख की खोज और दुःख का परित्याग, यही दो प्रेरणाएँ उसके कर्मों को सदैव संचालित करती हैं। प्रत्येक विवेकसम्मत प्राणी के जीवन का ध्येय आत्मसुख है। स्वभाववश स्वार्थी व्यक्ति दूसरों के लिए छोटा-सा त्याग भी प्रात्मसुख की प्राशा से करता है। अपने स्वार्थ के . महत्तम अंश की प्राप्ति ही विचारवान मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है। इस प्रकार बैंथम स्थूल 'स्वार्थवाद को स्वीकार करता है, प्रेरणामों के मूल में प्रात्म-स्वार्थ को देखता है। नैतिक मान्यताएँ, विभिन्न नियम, कर्तव्य, नैतिक बाध्यता, सद्गुण प्रादि उसके सुख-दुःख के सम्बन्ध में ही महत्त्वपूर्ण तथा प्रर्थगभित हैं।
स्वार्थ से परमार्थ की प्रोर-बैंथम का नीतिशास्त्र उसके चरित्र से अत्यधिक प्रभावित है । वह स्वभाव से परोपकारी और दयालु था। कानून में उसकी अत्यधिक रुचि थी। वह चाहता था कि जनहित को लक्ष्य मानकर नियम बनाये जायें। जनहित को ध्येय मानने पर भी उसने जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण जड़वादी रखा, मनुष्य की मूल प्रवृत्ति को स्वार्थी माना तथा सांसारिक सुख में जीवन की सार्थकता देखी । उसका ध्यान जीवन के दार्शनिक, सांस्कृतिक, कलात्मक और धार्मिक पक्ष की ओर आकृष्ट नहीं हुआ । एक ओर बैंथम ने अपने चिन्तन और अध्ययन के परिणामस्वरूप स्वार्थसुखवाद को अपनाया और दूसरी ओर उसके स्वभाव ने उसे परार्थ की ओर आकृष्ट किया। उसके परसुखवाद में उसकी जनहिताकांक्षिणी प्रवृत्ति बोलती दीखती है। वह कहता है कि नैतिक जीवन का आदर्श 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख है। मनुष्यमात्र के लिए अधिक-से-अधिक परिमाण में सुख खोजना ही व्यक्ति का ध्येय है। व्यक्ति को प्रात्मसुख खोजने का वहीं तक ,अधिकार है जहाँ तक कि उसका. सुख दूसरों के लिए बाधक अथवा दुःखद नहीं बनता। वास्तव में यहाँ पर बैंथम समाज-सुधारक के रूप में प्रकट होता है। उसने अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को समझने का प्रयास किया। प्रचलित धर्म, अन्धविश्वास, अभ्यास, रीति-रिवाज तथा धर्म के उपदेशकों द्वारा जिस भांति जाने-अनजाने सर्वसामान्य के सुख का शोषण होता है उसे देखकर वह अत्यन्त दुःखी हुआ ।, उसने साधिकार सुख को मनोवैज्ञानिक तथा नैतिक प्राधार देते हुए कहा कि जीवन का ध्येय सुख है और यह सुख वैयक्तिक नहीं किन्तु सामाजिक है। नैतिकता का मापदण्ड 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' है, सामूहिक सुख है। नैतिक दृष्टि से वही कर्म शुभ है जो सर्वकल्याण के लिए उपयोगी है । सर्वकल्याण अथवा जनसम्प्रदाय के सुख में १४२ / नीतिशास्त्र
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