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के अनुसार नहीं करना चाहिए, किन्तु उसकी दीर्घता और स्थिरता को महत्त्वः देना चाहिए तथा उसके परिणामस्वरूप सहवर्ती पीड़ा से मुक्ति प्राप्ति पर भी ध्यान रखना चाहिए । बुद्धि और स्मृति यह बताती है कि विवेकपूर्वक सुख की खोज करने पर ही सुखी जीवन सम्भव है। सुखी जीवन के दो आवश्यक. प्रालम्बन हैं । दैहिक दुःख का प्रभाव तथा मानसिक अशान्ति का अभाव | इस मापदण्ड से ऐन्द्रियक सुख और बौद्धिक सुख का मूल्यांकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्धिक सुख अधिक श्रेष्ठ है ।
atfare सुख की श्रेष्ठता : सिरेनंक्स से मतभेद - मानसिक सुख केवल प्रस्तुत संवेदनों तक ही सीमित नहीं है, वह सुखप्रद स्मृति और सुखमय प्रशा का भी सूचक है । इस प्राधार पर ऍपिक्यूरस ने सस्ती इन्द्रिय-परायणता की. कटु आलोचना की । एक ओर तो उसने यह स्वीकार किया कि यथार्थ शुभ. दैहिक सुख है और दूसरी प्रोर उसने बौद्धिक विश्लेषण द्वारा मानसिक सुख को अधिक महत्त्वपूर्ण कहा । शारीरिक दुःख की तुलना में मानसिक दुःख अधिक तीव्र, दीर्घकालीन प्रौर प्रसह्य होता है । इसलिए मानसिक सुख को मानव-जीवन के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण मानना चाहिए ।
बौद्धिक सुख शान्त सुख - ऍपिक्यूरस के अनुसार जीवन का ध्येय सुख है । उसकी प्राप्ति बुद्धि द्वारा सम्भव है । भावना अपने आपमें अन्धी है । ध्येय के स्वरूप को निर्धारित कर लेने पर भी वह अपनी तृप्ति के साधन को बुद्धि की सहायता से खोजती है । ऍपिक्यूरस का कहना था कि जीवन उद्वेगों और आवेगों का वासनापूर्ण तूफान नहीं है । वह एक संगतिपूर्ण इकाई है । मनुष्य और पशु, दोनों की इच्छाओं का विषय सुख है। दोनों के जीवन का आदि और अन्त सुख है । किन्तु मनुष्य की महत्ता के कारण दोनों के सुख को समान माननाः उचित नहीं है । दोनों के लिए सुख के अर्थ भिन्न हैं, उसकी प्राप्ति के साधन में अन्तर है | मनुष्य पशु की भाँति क्षणिक सुख की खोज नहीं करता है। वह इन्द्रियसुख से अधिक मानसिक सुख को मूल्य देता है । असम्बद्ध, अव्यवस्थित आवेगपूर्ण जीवन उसे दुःखपूर्ण लगता है । उसके जीवन का ध्येय शान्त सुख है । यह उसी को प्राप्त होता है जो वासनाओं, दुःख और भय से अपने को मुक्त कर लेता है । वासनाओं के स्वच्छन्द उपभोग से बौद्धिक प्राणी में ऊब और अतृप्ति उत्पन्न होती है । उसके शारीरिक स्वास्थ्य का ह्रास हो जाता है । उसका विवेक: उसे बताता है कि इच्छाओं के संयमन, उनके उचित चुनाव से प्रात्मिक शान्ति मिलती है और मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता बन जाता है । अतः विवेक और
सुखवाद / १२७
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