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सुखी जीवन के लिए आवश्यक है। ऍपिक्यूरस स्पष्ट रूप से बौद्धिक सुख की . गुणात्मक श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करता है । सद्गुण इसलिए प्रावश्यक नहीं हैं कि उनसे मानसिक प्रवृत्तियों का परिष्कार होता है किन्तु इसलिए कि वे निरन्तर सुख का कारण हैं।
मनोवैज्ञानिक सुखवाद की मालोचना जड़वादी तत्त्वदर्शन : स्थूल सुखवाद-मनोवैज्ञानिक सुखवाद की मूलगत प्रमुख त्रुटि तात्त्विक है । स्थूल सुखवाद को अपनाने के कारण ही उसका सिद्धान्त असामाजिक, अव्यावहारिक, अवास्तविक, अमनोवैज्ञानिक तथा अनैतिक हो गया है। अपने जड़वादी तत्त्वदर्शन के कारण उसने यह माना कि आत्मा का मूल रूप इन्द्रिय है । वह सहज-प्रवृत्तियों, संवेदनाओं, भावनाओं आदि का क्रम मात्र है। मानव-स्वभाव के ऐसे एकांगी ज्ञान पर ही उसने अपने सिद्धान्त को आधारित किया। मनुष्य के जीवन का परमध्येय इन्द्रिय-सुख है। उसे चाहिए कि पाँख मूंदकर सुखभोग करे। व्यक्ति का वर्तमान ही निश्चित है। भविष्य अनिश्चित और अज्ञेय है । न जीवन ही शाश्वत है । मनुष्य काल के अधीन है। ऐसी परिस्थिति में उसे केवल इन्द्रियमय बुद्धिहीन सरल जीवन बिताना चाहिए।
केवल-इन्द्रिय सुख : बुद्धि, इच्छा एक-दूसरे के पूरक हैं-सब प्राणी स्वभाववश सुख चाहते हैं। मनुष्य के जीवन का ध्येय भी सूख है। उसे अधिकतम परिमाण में सुख भोगना चाहिए। तात्कालिक, तीव्र और दीर्घकालीन सुख वांछनीय है । मनुष्य के बौद्धिक भी होने के कारण उसमें तथा निम्न प्राणियों में यही अन्तर है कि वह उनकी अपेक्षा अधिक सुख का भोग कर सकता है। दोनों के ध्येय समान हैं, साधन में अन्तर है। मनुष्य की बुद्धि ध्येय की प्राप्ति के लिए उचित साधन खोज सकती है। किसी कर्म का बौद्धिक महत्त्व इस पर निर्भर है कि सुख की प्राप्ति के लिए कहां तक उचित साधनों का उपयोग किया गया है । सुखवादियों ने निर्णीत कर्म के स्वरूप को नहीं समझा । उन्होंने बुद्धि और इच्छा के सम्बन्ध के बारे में भ्रान्तिपूर्ण धारणा बना ली थी। इच्छा के उत्पन्न होते ही बुद्धि उसके सन्तोष के लिए ही नहीं सक्रिय हो उठती है, उचित चिन्तन और विवेचन के पश्चात् ही बुद्धि इच्छा की पूर्ति के सम्बन्ध में अपना निर्णय देती है । 'इच्छा का विषय' या 'इच्छित ध्येय' उसी व्यक्ति के लिए अर्थ रखता है जो सोच-समझ सकता है; अनुभव और चिन्तन कर सकता है । इच्छा में स्वयं भी उस ध्येय का विचार निहित है जो मनुष्य की सम्पूर्ण
सुखवाद | १२६
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