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को जन्म दिया। - अन्तर्बोध की स्थिति-विचारकों ने नियमों को समझने का प्रयास किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बाह्य शक्ति द्वारा आरोपित नियमों का भय, विनय या दासता के भाव से पालन करना नैतिकता नहीं है। रीति-रिवाज, प्रचलनों और बाह्य नियमों से नैतिक व्यक्ति मुक्त है। वह उन्हीं नियमों को अपने आचरण में स्वीकार करता है जिनका कि उसका अन्तर्बोध (conscience)' अनुमोदन करता है । उसका जीवन अपने-आपमें अपना नियम बना लेता है। नैतिक प्रौढ़ता को प्राप्त व्यक्ति बाह्य नियम का प्राज्ञाकारी नहीं है, वह अपने प्रान्तरिक नियम या अन्तर्बोध से शासित है। नैतिक नियम वास्तव में अन्तर्बोध की देन है और नैतिक निर्णय अन्तर्बोध का निर्णय है। यह मनुष्य का अपना वैयक्तिक अधिकार है कि वह नैतिक क्षेत्र में स्वतन्त्र निर्णय दे सकता है, अन्तर्बोध की ध्वनि को सुन सकता है और उसके आदेश का पालन कर सकता है। अन्तर्बोध बताता है कि उसे क्या करना चाहिए और आचरण का कौन-सा नियम उसके लिए उचित है। अन्तर्बोध नैतिकता का माप-दण्ड है, वह व्यावहारिक मार्ग को निर्धारित करनेवाला है।
प्रान्तरिक नियम की अच्छाइयां और बुराइयाँ-अन्तर्बोध के शासन का काल नैतिक-जीवन का वह काल है जब कि मनुष्य प्रचलनों की नैतिकता तथा लौकिक आचारविधियों से विद्रोह करके अन्तर्दर्शन का ज्ञान प्राप्त करने लगा और अपने अन्तःकरण की शुद्धता पर मनन-चिन्तन करने लगा। वह बाह्य नियमों से विमुख होकर आत्मिक सत्य को खोजने लगा, किन्तु अपरिपक्व मानसिक स्थिति के कारण वह अपने ही साम्प्रदायिक आवेश और कट्टरपन्थी का शिकार हो गया। उसकी प्रास्थाओं, पूर्वग्रह, रूढिप्रियता और प्रचलनों का भय ही उसके अंन्तर्बोध द्वारा अपने को व्यक्त करने लगे। इन दुर्बलतानों के होने पर भी आन्तरिक नियम की अपनी विशेषता रही। उनके प्रभाव से व्यक्ति नैतिक रूप से अधिक जागरूक हो गया। प्रचलित नैतिकता ने आचार के बाह्य पक्ष को-कर्मों और उनके परिणामों को महत्त्व दिया था। किन्तु विवेकसम्मत नैतिकता (Rationalistic Ethics) ने, अथवा विचार-प्रधान प्रणा
१. नैतिक नियम के प्रान्तरिक स्वरूप को सहज ज्ञानवादियों (Intuitionists) ने सम
माने का प्रयास किया है। उन्होंने अन्तर्बोध के विभिन्न अर्थ किये हैं। वे अपने इस प्रयास में कहाँ तक सफल अथवा प्रसफल रहे उसके लिए देखिए, भाग २, अध्याय १० ।
नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) ) १११
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