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नैतिक आदर्श का क्षेत्र दर्शन का क्षेत्र है और इसलिए दार्शनिक पद्धति उचित पद्धति है ? जिस आदर्श की प्राप्ति के लिए नीतिशास्त्र प्रयास करता है वह मात्र काल्पनिक और चिन्तनप्रधान नहीं है । उस आदर्श का सम्बन्ध वास्तविक अनुभवात्मक जगत से है अथवा प्रतिदिन और प्रतिक्षण के कार्य-कलापों से है । अनुभवात्मक आत्मा से सम्बन्ध रखनेवाले आदर्श के लिए उसका ज्ञान अनिवार्य है एवं मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, जीवशास्त्र आदि विज्ञानों की सहायता लेना आवश्यक है । दार्शनिक प्रणाली को महत्त्व देनेवाले भूल गये कि नैतिक आचरण का एकमात्र उद्देश्य शाश्वत जीवन नहीं है । सद्गुण, कर्तव्य, त्याग, बाध्यता आदि अनुभवात्मक आत्मा के सम्बन्ध से ही अर्थगर्भित होते हैं ।
नीतिशास्त्र में दोनों प्रणालियां परस्पर निर्भर - नीतिशास्त्र नैतिक निर्णयों को विधान की एकता में बाँधने का प्रयास करता है । वह नैतिक तथ्यों का उस नैतिक आदर्श के सम्बन्ध में व्याख्या और स्पष्टीकरण करता है जो कि सत्ता के विधान से अनन्य रूप से सम्बन्धित है । इस दृष्टि से नीतिशास्त्र के क्षेत्र में वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रणाली परस्पर निर्भर हैं । वैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर नीति - शास्त्र नियम, कर्म, चरित्र, अभ्यास आदि का विज्ञान की भाँति निरीक्षण और स्पष्टीकरण करता है । सामान्यबोध के निर्णयों को, चाहे वे तथ्यात्मक हों या मूल्यपरक, विधान की एकता में बाँधकर व्यवस्थित रूप देने का प्रयास करता है । इसके आगे नीतिशास्त्र और विज्ञान में भेद है । नैतिक निर्णय मूल्यपरक और वैज्ञानिक तथ्यात्मक हैं । विज्ञान का क्षेत्र सीमित है । नीतिशास्त्र विज्ञान से युक्त होने पर भी व्यापक क्षेत्र को अपनाता है । वह तब तक पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता जब तक कि नैतिक दर्शन या तत्त्वदर्शन को नहीं अपना लेता है । उसके मूल्यपरक निर्णय चिन्तनप्रधान या दार्शनिक होते हैं । अतः नीतिशास्त्र वैज्ञानिक प्रणाली को अपनाकर दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश करता है । नैतिक निर्णय अपनी परमप्रामाणिकता के लिए एवं नैतिक विचार अपने अर्थ, मूल्य और सार्थकता के लिए तत्त्वदर्शन पर निर्भर हैं । नीतिशास्त्र अपने भीतर अनुभवात्मक और अनुभवातीत तथ्यों का समावेश करता है ।
नैतिक प्रणाली : समन्वयात्मक - जीवन में निहित प्रदर्श को समझने का विज्ञान शुद्ध विज्ञान से भिन्न है। वह किसी घटना को पूर्वकालीन घटना एवं कार्य-कारण के नियम द्वारा नहीं समझाता वरन् उसे समस्त विश्व की आवयविक व्यवस्था का अभिन्न अंग मानता है । ऐसी स्थिति में विषयों का केवल बाह्य निरीक्षण पर्याप्त नहीं है । प्रत्यक्ष अन्तर्ज्ञान या सहजज्ञान एवं समग्रता का ज्ञान
नीतिशास्त्र की प्रणालियाँ / ४६
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