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जी' ने मनुष्य के कर्तव्यों को तीन वर्गों में बाँटा है : (१) वे निश्चित कर्तव्य जिन्हें कि राज्यसत्ता निर्धारित करती है और जिनका उल्लंघन दण्ड से - युक्त है । (२) वे कर्तव्य जिन्हें कि राजकीय या राष्ट्रीय नियम का रूप नहीं दे सकते हैं किन्तु फिर भी प्रत्येक सम्माननीय नागरिक के लिए वे आवश्यक हैं । (३) वे कर्तव्य जो कि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करते हैं । प्रत्येक से भिन्न प्रकार के नैतिक आचरण की आशा करते हैं ।
कर्तव्यों में निश्चित भेद देखना, जैसा कि स्वयं मेकेंजी ने स्वीकार किया है, अनुचित है । इस भाँति का भेद विवेकसम्मत नहीं है । यह भेद कानूनी है, न कि नैति । नैतिक क्षेत्र में सद्गुण, नैतिक बाध्यता, कर्तव्य आदि समानार्थी हैं और इन सबका सम्बन्ध ध्येय से है । शुभ एवं ध्येय के अनुरूप कर्म करना सद्गुण, नैतिक बाध्यता एवं कर्तव्य है । कर्तव्य सदैव विशिष्ट परिस्थितियों में निश्चित तथा निर्धारित होता है । नीतिज्ञों ने कर्तव्यों के बीच जो भेद माना है वह सामयिक है, परम और स्थायी नहीं है । तीनों प्रकार के नियमों में जो भेद दीखता है वह परम नहीं है बल्कि देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर है। नियमों का ऐतिहासिक अध्ययन बतलाता है कि आवश्यकताएँ, विकास और परिवर्तन किसी वर्ग के नियम को स्थायी नहीं रहने देता; कर्तव्यों के वर्गों को बदला जाता है। प्रथम वर्ग का कोई कर्तव्य द्वितीय में आ सकता है और द्वितीय का तृतीय में । राज्यविधान तथा नागरिकों के शिष्टाचार के नियम कठोर और अपरिवर्तनशील नहीं रह सकते । आवश्यकता और समयानुसार कुछ कर्तव्य अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं और कुछ कम । अतः कर्तव्यों की सामयिक संहिता बनायी जा सकती है, स्थायी नहीं । तो क्या हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निश्चित कर्तव्यों की रूपरेखा बनाना भूल है ? क्या मनु ने अपनी मनुस्मृति तथा बाइबिल ने अपने दस आदेश देकर अव्यावहारिक काम किया ? समय और काल की सीमा के अन्दर सापेक्ष कर्तव्यों को निर्धारित करके जनसामान्य के मार्ग को निर्देशित करना उचित श्रौर आवश्यक है, किन्तु इसके अर्थ यह कदापि नहीं हैं कि हम विकास, परिवर्तन और नवीन आवश्यकताओं को भूल जायँ ।
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नीतिशास्त्र ध्येय की चेतना को जाग्रत करके आचरण के नियमों का आभासमात्र देता है | वह कर्म करने के लिए विस्तृत उपदेश नहीं देता । नैतिक अन्तर्ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति अपने कर्तव्य को स्वयं निर्धारित कर सकता है । प्रत्येक
2. Mackenzie.
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नैतिक प्रत्यय / ७६
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