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नुकरण करनेवाला, अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को भूलनेवाला, बुद्धि को कुण्ठित करनेवाला, नैतिक ज्ञान पर रीति का पर्दा डालनेवाला व्यक्ति सब-कुछ होते हए भी नैतिक मानव नहीं है। प्रलापी तथा धर्मोन्मादी लोगों के पशु-सदश व्यवहार करने का यही कारण है कि उन्होंने अपने को बाह्य नियमों तथा आडम्बरों में सीमित कर दिया है। उन नियमों का पालन करके हम कहाँ पहुंचेंगे, इसे समझने का प्रयास नहीं किया है। जीवन का क्या ध्येय है ? सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? कल्याण के क्या अर्थ हैं ? आदि समस्याएँ उनके जीवन में नहीं उठतीं । यही कारण है कि वे नियमों की कमियों और बुराइयों की ओर से उदासीन हैं । यह विरक्ति ही उनसे जड़-नियमों का पालन तथा अनैतिक कर्म करवाती है । स्थिर नियमों का पालन करना नैतिकता नहीं है। वही नियम नैतिक हैं जो मानवता के विकास और कल्याण के लिए शुभ हैं । विज्ञापन और कला की उन्नति, सभ्यता और संस्कृति का विकास, ज्ञान और अनुभव की वृद्धि एवं जीवन का सांगोपांग अभ्युदय नियमों में भी परिवर्तन की अपेक्षा रखता है। एक ही नियम सब कालों और परिस्थितियों में मान्य नहीं . हो सकता। व्यक्ति की मानसिक-कायिक स्थिति, उसकी आवश्यकता और परिवेश, समाज की आर्थिक स्थिति, सांस्कृतिक चेतना, प्रौद्योगिक और राजनीतिक क्रान्तियाँ नियमों के सापेक्ष महत्त्व को समझाती हैं। परिस्थिति और समय के अनुसार कर्तव्य का रूप बदल जाता है। किन्तु विवेकहीन प्रचलनों का दास मानव इस सत्य को नहीं समझ पाता।
प्रचलित नैतिकता की दुर्बलताएं-अबौद्धिक और विवेकशून्य आचरणइसमें सन्देह नहीं कि अपनी प्रारम्भिक अवस्था में नैतिक नियम प्रचलित लौकिक नीतियों और अनीतियों के सूचक रहे। किन्तु कालक्रम में उनमें अनेक त्रुटियाँ आ गयीं, वे व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सके । वास्तव में प्रचलित नैतिकता का राज्य अविवेक का राज्य है। यह अपनी प्रजा की स्वतन्त्र बुद्धि और विवेक को निष्क्रिय कर देता है। परिणामस्वरूप प्रजा नियमों को परम मान लेती है। वह अबौद्धिक आचरण को अपना लेती है और समझबूझकर कार्य नहीं करती। ध्येय को समझने का प्रयास किये बिना ही स्थिर 'नियमों को अपना लेती है। अपरिवर्तनशील नियम नैतिक विकास में बाधा डालते हैं । वे जीवन की प्रगति के लिए अनुपयोगी हो जाते हैं और व्यावहारिक कठिनाइयों को नहीं सुलझा पाते। वे जनसाधारण को अन्धविश्वास, रूढिप्रियता, चमत्कारवाद एवं थोथी प्रास्थानों-विश्वासों से जकड़ देते हैं और इस बात पर
नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) / १०५
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