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के अनुसार नियमों की प्रामाणिकता पर सन्देह करना भयंकर पाप है, उनके औचित्य को समझने का प्रयास करना नरक का मार्ग खोजना है और निर्धारित कर्तव्यों की संहिता को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना ही नैतिकता है। ऐसे स्थिर नियमों को पूजनेवाला व्यक्ति सामाजिक हित को अपना लक्ष्य नहीं बना सकता था। विकास के साथ प्रगति करने के बदले वह कट्टरपन्थी हो गया। नियमों का अन्धानुकरण करने के कारण उसने दुष्कर्मों और अनैतिक आचरण को अपना लिया। नियमों के स्रोत की ओर से विमुख हो जाने के कारण वह उनका पालन केवल अभ्यास और भयवश करने लगा। उसने उन नियमों के मूलतत्त्व को और उनकी उपयोगिता को समझने का प्रयास नहीं किया। वह धीरे-धीरे नैतिक ज्ञान-शून्य हो गया । वह रीति-रिवाजों को ही सब-कुछ मानने लगा । नैतिक संहिताओं, प्रचलित धारणाओं, विश्वास तथा धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप आचरण को ही वह शुभ समझने लगा। उसकी दृष्टि में वही व्यक्ति नैतिक गुणसम्पन्न रहा जो प्रचलित मान्यताओं का मूक भाव से पशुवत् पालन करता हो; जिससे प्रचलन-रूपी तलवार की धार का भय अमानुषीय, असामाजिक और अनैतिक कर्म करवा देता हो।
राजसत्ता तथा ईश्वरीय नियम--ऐसे व्यक्ति के आचरण को नैतिक आत्मा संचालित नहीं करती; बल्कि पुरस्कार और दण्ड की भावना, पड़ोसी का भय, परिवेश, राजसत्ता और परिवार का मोह आदि बाह्य प्रतिबन्ध परिचालित करते हैं। उनसे भयभीत होकर वह एक विशिष्ट प्रकार से कर्म करता है । ये उसे आदेश देते हैं- ऐसा करो' और वह बलि-पशु की भांति उसे हरी घास समझकर सहर्ष स्वीकार करता है। बिना समझे-बूझे नियमों का पालन करनेवाला व्यक्ति 'यह करना चाहिए' अथवा 'यह करना उचित है' आदि तथ्यों की ओर से तथा आचरण के आन्तरिक पक्ष की ओर से अचेत है। उसके आचरण की बागडोर प्रचलनों के हाथ में है। वह उनकी सत्ता को बिना आपत्ति और विरोध के चुपचाप स्वीकार कर लेता है। उनके विरुद्ध उसके मानस में किसी प्रकार का संकल्प-विकल्प नहीं उठता। जिस वातावरण में वह पलता और रहता है उसके नियमों का पालन करना ही उसके लिए स्वर्ग है और उसका उल्लंघन करना ही नरक है।
ऐसे व्यक्ति का आचरण नैतिकता की कसौटी में खरा नहीं उतर सकता । भगवान्, नरक, राजसत्ता, शक्तिशाली व्यक्ति, पड़ोसी, अदृश्य शक्तियोंआदि से भयभीत होकर कर्म करना अनैतिक है। प्रचलित नैतिकता का अन्धा
१०४ / नीतिशास्त्र
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