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एवं प्रात्म-प्रारोपित नियम की श्रेष्ठता को काण्ट ने भली-भांति समझाया
कर्तव्य की पूर्ण और अपूर्ण बाध्यता-कुछ विचारकों ने कर्तव्यों को दो वर्गों में विभाजित किया है। वे यह मानते हैं कि आचरण के नियमों अथवा सब कर्तव्यों को पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता। कर्तव्य की निश्चित संहिता बनाना सम्भव नहीं है, फिर भी वे यह मानते हैं कि सहायता के इच्छक जनसामान्य का नीतिशास्त्र कुछ हद तक पथ-निर्देशन कर सकता है। इस अभिप्राय से नीतिज्ञों ने कहा कि दो प्रकार की बाध्यताएं हैं : (१) जिनको निर्धारित किया जा सकता है और (२) जिनको निर्धारित नहीं किया जा सकता है। इसी आधार पर कुछ विचारकों ने निश्चित बाध्यताओं को कर्तव्य और अनिश्चित को सद्गुण कहा है। कुछ निश्चित कर्तव्यों को न्याय के अन्तर्गत समझाते हैं और उनका पालन करना नैतिक बाध्यता मानते हैं।
काण्ट ने उपर्यक्त भेद को महत्त्व देकर पूर्ण बाध्यता के कर्तव्य और अपूर्ण बाध्यता के कर्तव्य की भिन्नता को समझाया। पूर्ण बाध्यता के कर्तव्य बतलाते हैं कि कुछ आचरण अनुचित हैं, और ऐसे अनुचित प्राचरण को न करने का
आदेश हमें मिलता है। अतः पूर्ण बाध्यता के कर्तव्य निषेधात्मक हैं । बिना किसी शर्त के एक निश्चित प्रकार के आचरण की आशा की जाती है—'चोरी नहीं करोगे', 'झूठ नहीं बोलोगे' आदि। ये नीति-वाक्य सर्वदेशीय और सर्वकालीन हैं; अनिवार्य आदेश के रूप में ये हमें मिलते हैं। ये निश्चित कर्तव्य हैं । अपूर्ण बाध्यता के कर्तव्य विधेयात्मक हैं। इन्हें निषेधात्मक आदेशों की भाँति परमरूप से व्यक्त नहीं कर सकते। ये सर्वदेशीय और सर्वकालीन नहीं हैं। देश, काल और परिस्थिति के वृत्त में ही इन्हें समझ सकते हैं। परोपकार, दान, दया आदि के कर्तव्य विशिष्ट अवसर एवं देश, काल और परिस्थिति से सम्बन्धित हैं। निश्चित कर्तव्यों का बाह्य आदेश प्राप्त होता है। उनका उल्लंघन दण्ड से युक्त है । किन्तु अनिश्चित एवं अपूर्ण बाध्यता के कर्तव्य आत्म-आरोपित हैं । कर्ता स्वयं ही सत् प्राचरण को अपनाता है। जब देश की भलाई के लिए स्वेच्छा से प्रसन्नवदन होकर व्यक्ति जीवनोत्सर्ग कर देता है तो वह अपूर्ण बाध्यता के कर्तव्य को अपनाता है। ऐसे कर्तव्य उन्नत चरित्र एवं नैतिक श्रेष्ठता के सूचक हैं । श्रेष्ठ चरित्र किसी भी विशिष्ट परिस्थिति में शुभ के अनुरूप कर्म को अपनायेगा । उसका आचरण सदैव ही शुभ की प्राप्ति के लिए साधनमात्र रहेगा।
७८ । नीतिशास्त्र
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