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नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड)
विषय-प्रवेश-नैतिक निर्णय के मानदण्ड का प्रश्न वास्तव में नैतिक चेतना के विकास का प्रश्न है। नैतिक चेतना के विकास के ऐतिहासिक अध्ययन से प्रकट होता है कि किस प्रकार नैतिक निर्णय अनेक बर्बर स्थितियों को अतिक्रम कर आज की विकसित अवस्था में पहुँचा है । उसका मापदण्ड अब वैयक्तिक अथवा एकदेशीय नहीं रह गया है । वह सार्वभौम प्रामाणिकता प्राप्त कर चुका है। उसका ध्येय सार्वभौमिक कल्याण और उसका निर्णय मानवता का निर्णय है।
नियम और ध्येय की समस्या-यह कहा जा चका है कि नैतिक निर्णय स्वेच्छाकृत कर्मों पर दिया जाता है अथवा उन कर्मों पर, जिन्हें बुद्धिजीवी स्वतन्त्रतापूर्वक करता है। किन्तु प्रश्न यह है कि वह कौन-सा मापदण्ड है जिसके आधार पर कर्मों को नैतिक अथवा अनैतिक कहते हैं, उनके औचित्यअनौचित्य पर निर्णय देते हैं । कर्मों के स्वरूप को समझने के लिए मुख्यतः शुभअशुभ, उचित-अनुचित का प्रयोग किया जाता है। कर्मों के विशेषणों के रूप में अन्य जितने भी शब्द मिलते हैं वे किसी-न-किसी रूप में इन्हीं के पर्यायवाची हैं। वह कर्म शुभ है जो ध्येय की प्राप्ति के लिए उपयोगी है और वह कर्मउचित है जो नियम के अनुरूप है। इन अर्थों पर ध्यान देने से यह प्रतीत होता है कि कर्मों का मूल्यांकन करने के लिए दो भिन्न मापदण्ड हैं : एक ध्येय सम्बन्धी और दूसरा नियम सम्बन्धी।
__यह समस्या मिथ्या है—किन्तु विभिन्न मापदण्डों की धारणा, वास्तव में, मिथ्या है । नियमों के उद्गम के इतिहास से ज्ञात होता है कि निर्णय का माप
१०० / नीतिशास्त्र
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