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था तो स्वतः इस धन को अजित करेगा या अमीर की नैतिक चेतना को जागृत करेगा। नैतिक कर्म करने के लिए सम्पूर्ण परिस्थिति को भली-भाँति समझना आवश्यक है।
आचरण के दो रूप : बाह्य और प्रान्तरिक-नैतिक निर्णय का विषय, जैसा कि कह चुके हैं, मनुष्य का आचरण है और मनोविज्ञान यह बताता है कि जब संकल्पशक्ति व्यक्ति के चरित्र के अनुरूप उसकी प्रबल इच्छा से समीकरण करके कार्य रूप में परिणत हो जाती है तब उसे आचरण कहते हैं। इस प्रकार
आचरण के दो रूप सम्मुख आते हैं-पान्तरिक और बाह्य । आन्तरिक रूप ' में यह निर्णय करनेवाली संकल्पशक्ति है और बाह्य रूप में कार्यरत आत्मा या
संकल्पशक्ति । एक दष्टि से आचरण वह संकल्पशक्ति है जो चेतन कर्म द्वारा अपने को व्यक्त करती है । संकल्पशक्ति के रूप में यह भावना और इच्छा है, जिसके सम्मुख एक विशिष्ट ध्येय है और दूसरी दृष्टि से यह कर्म है। कर्म में परिणाम भी अन्तहित रहता है। एक अोर संकल्पशक्ति ध्येय और प्रयोजन की सूचक है और दूसरी ओर आचरण और परिणाम की। अपने क्रियात्मक रूप में यह परिणाम (कार्य) का कारण है। यहाँ पर प्रश्न उठता है कि नैतिक निर्णय संकल्पशक्ति के किस रूप पर देते हैं ? प्रयोजन पर या परिणाम पर? कार्य पर या कारण पर ? उस प्रबल इच्छा पर देते हैं जिसके अनुसार संकल्पशक्ति कर्म करती है या उन घटनाओं पर जो कर्म करने पर उत्पन्न होती हैं ? अथवा आचरण का औचित्य-अनौचित्य भावना और इच्छा के स्वरूप पर निर्भर है या उन परिणामों पर जो संकल्पशक्ति के कार्य रूप में परिणत होने पर उत्पन्न होते हैं ? कुछ नीतिज्ञों ने आचरण के इन दो रूपों के बीच परम भेद देखा और इस भ्रान्त धारणा के आधार पर कुछ ने प्रेरणा (आन्तरिक रूप) को और कुछ ने परिणाम (बाह्य रूप) को नैतिक निर्णय का विषय कहा।
प्रेरणा-प्रेरणा (motive) और परिणाम (consequences) के बारे में नीतिज्ञों के विभिन्न मत हैं। पहले प्रेरणा को समझने का प्रयास करेगे। प्रेरणा के स्वरूप के बारे में एक ओर काण्ट, बटलर और सहजज्ञानवादियों का मत मिलता है और दूसरी ओर बैंथम और मिल का। दोनों ही प्रकार के विचारकों ने प्रेरणा को भिन्न अर्थ में समझा है। प्रेरणा किसे कहते हैं ? इससे क्या अभिप्राय है ? सुखवादियों (बैंथम, मिल) के अनुसार प्रेरणा वह है जो कर्म करने के लिए प्रेरित करती है । सुख-दुःख की भावना ही प्रेरणा है । प्रेरणा ही कर्म का स्रोत है। सब प्रेरणाओं का एक ही स्वरूप होता है-सुख की
७० / नीतिशास्त्र
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