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इच्छित ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है। उसके मानस के सम्मुख दो परिस्थितियाँ रहती हैं, वर्तमान और वांछित परिस्थिति । इच्छा मन की वर्तमान परिस्थिति और अप्राप्त भावी परिस्थिति के बीच की खिंचाव की अवस्था है । यह दो परिस्थितियों के बीच के संघर्ष की स्थिति है । कर्ता यह सोचता है कि वह अपने इच्छित ध्येय को कैसे प्राप्त करे। वह उसको प्राप्त करनेवाले साधन और परिणाम के बारे में सोचता है। किन्तु कई बार ऐसा होता है कि उसमें एक से अधिक इच्छाओं का प्रादुर्भाव हो जाता है, जो उसके लिए मानसिक संघर्ष की स्थिति होती है। उसे विभिन्न इच्छाओं में से एक इच्छा को चुनना होता है। इन इच्छानों का स्वरूप उसके चरित्र के अनुरूप होता है। उसमें उसके व्यक्तित्व के समान ही भिन्न श्रेणियों की इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। प्रत्येक इच्छा के सम्मुख भिन्न लक्ष्य रहता है, मनुष्य का चरित्र ही उन इच्छाओं का जनक है। उसी की भिन्न मानसिक अवस्थाओं की वे व्यक्त रूप हैं। एक ही चरित्र में इच्छाओं के विभिन्न स्तर मिलते हैं। एक स्तर उसे आत्म-सुख की ओर ले जाता है तो दूसरा पर-सुख की ओर और तीसरा वैराग्य की अोर। इस प्रकार के और भी अनेक स्तर हो सकते हैं। और प्रत्येक स्तर अपने पूर्ण प्रभावों के साथ उसके सम्मुख पाता है। यह मानसिक अथवा आन्तरिक संघर्ष की स्थिति है। उसके विभिन्न दृष्टिकोण उसके सम्मुख अपनी-अपनी विशिष्टता रखते हैं। वह केवल योद्धा ही नहीं, योद्धा और युद्ध दोनों ही है। यह स्थिति वास्तव में विवेचन की स्थिति है। वह निष्पक्ष रूप से सोचना चाहता है कि उसे क्या करना चाहिए । वह अपनी ही आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं पर चिन्तन और मनन करता है; विकल्पों के पक्षान्तरों को समझना चाहता है और जब विवेचन के परिणामस्वरूप संकल्प-शक्ति किसी एक इच्छा को स्वीकार कर लेती है तब यह निर्णय की अवस्था कहलाती है। किन्तु केवल निर्णय पर नैतिक निर्णय नहीं देते हैं। यदि कोई विद्यार्थी केवल यह निर्णय करके सन्तोष कर ले कि शाम से मन लगाकर पढ़गा और वास्तव में न पड़े तो यह नहीं कह सकते कि वह सचमुच में ही अध्ययनशील विद्यार्थी है । इसी प्रकार परोपकार का निर्णय कई व्यक्ति करते हैं। किन्तु जब तक वे इस निर्णय को अपने आचरण का अंग न बना लें, निर्णय को वास्तविक रूप न दे दें, उन्हें परोपकारी नहीं कह सकते। मनुष्य की संकल्पशक्ति जब स्वीकृत इच्छा के अनुरूप कार्य करने लगती है, कर्म के रूप में परिणत हो जाती है तब वह नैतिक निर्णय का विषय हो जाती है। यहां यह समझना आवश्यक है कि संकल्प-शक्ति किसी
मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय | ६७
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