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ने उसे अनजाने में ही वैज्ञानिक बना दिया। बाह्य-जगत के नियमों को समझने के लिए उसने उनका अनुशीलन किया। वैज्ञानिक चिन्तन तथा सिद्धान्त उसके प्रयोजन के ही प्रतिबिम्ब हैं । दीर्घकाल के पश्चात् उसमें उस 'तटस्थ जिज्ञासा' का प्रादुर्भाव हुआ जो महान् वैज्ञानिक आविष्कारों की जननी है । इसी प्रकार नीतिशास्त्र के क्षेत्र में भी व्यावहारिक आवश्यकताएँ ही नैतिक सिद्धान्त के प्रादुर्भाव का कारण हैं। आवश्यकताओं द्वारा प्रेरित होने के कारण मनुष्य अपने जीवन और विचारों पर मनन करता है। वह सहज प्रेरणावश प्रचलित नियमों, संस्थाओं आदि का या तो अनुमोदन करता है, और या तो विरोध । धीरे-धीरे उसकी बुद्धि के विकास के साथ ही पौचित्य-अनौचित्य के नैतिक नियम बौद्धिक, तर्कसंगत तथा सार्वभौमिक रूप धारण कर लेते हैं। इस रूप में वे अधिक लोगों को आकर्षित करते हैं और नियमबद्ध होने के कारण मानव की बौद्धिक माँगनियम-प्रियता को सन्तुष्ट करते हैं। साथ ही दैनन्दिन के जीवन से सम्बन्धित होने के कारण नैतिक निष्कर्ष तात्कालिक और सार्वभौमिक अभिरुचि के होते हैं।
सिद्धान्त और व्यवहार का ऐक्य-नैतिकता का इतिहास यह भली-भांति सिद्ध कर देता है कि व्यवहार और सिद्धान्त एक ही सत्य के दो रूप हैं । नैतिक सिद्धान्त मूर्त सत्य (व्यावहारिक आवश्यकताओं) के ही अमूर्त रूप हैं । नैतिकता अपनी प्रथम स्थिति में सहज प्रवृत्ति, रूढ़ि और आदेश के रूप में प्रस्फुटित हुई, और बाद में इसके प्रति व्यक्ति अधिकाधिक सचेत होता गया। जीवन की बढ़ती हुई अव्यवस्था ने उसे संगति और विधान खोजने को प्रेरित किया । अतः प्रवृत्तियों के विरोध ने तथा बाह्य शक्तियों की क्रान्ति ने मनुष्य के नैतिक ज्ञान को चेतावनी देते हुए जाग्रत किया। वह प्रबुद्ध एवं प्रौढ़ चिन्तन करने लगा। नैतिक ज्ञानी ने आत्मानं विद्धि-आत्मा को जानने का उद्घोष किया । आत्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान ही वास्तव में आचरण-पथ का निर्देशन करता है। नैतिक संहितामों में जो परस्परविरोध, द्वेष, क्रोध, वैमनस्यता आदि मिलते हैं प्रात्म-सत्य उन सबको समन्वित कर मानव-बुद्धि को शुद्ध तथा मुक्त करता है । वह जीवन की केवल इच्छाओं, सहज प्रवृत्तियों, आवेगों, वासनाओं तथा. परिस्थितिजन्य संघर्षों के बीच नहीं बहने देता है। मानसिक विप्लव की स्थिति में नैतिक-ज्ञान शक्ति बनकर मनुष्य की रक्षा करता है। __जीवन की ठोस व्यावहारिक आवश्यकताएँ नैतिक मापदण्ड को खोजती हैं। वे उस मापदण्ड को निर्धारित करना चाहती हैं जो वास्तव में शुभ तथा सार्वभौमिक है। यह व्यावहारिक से सैद्धान्तिक स्थिति परिवर्तन का लक्षण है।
नीतिशास्त्र और विज्ञान / ४१
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