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कर उनके मूल कारणों को विशिष्ट समयानुसार प्रकाश में ला सके । नैतिकता की उत्पत्ति की मांग उस सिद्धान्त या मापदण्ड की माँग है जो जीवन के ध्येय और मूल्य को सम्यक् ज्ञान द्वारा प्रदर्शित कर सके । परम मापदण्डी की खोज के लिए नीतिशास्त्र अपनी व्यावहारिक अन्तर्दष्टि का उपयोग करता है जो उसके लिए अनिवार्य है क्योंकि वह मानव आचरण की आवश्यकता का सिद्धान्त है।
जहाँ तक नीतिशास्त्र के व्यवहार का प्रश्न है यह मनुष्य के व्यक्तित्व पर निर्भर है कि वह उसे अपने आचरण में कहाँ तक स्वीकार करता है। यह सम्भव हो सकता है कि वह नीतिशास्त्र का अध्ययन केवल परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए अथवा अपने सामान्य ज्ञान की अभिवृद्धि अथवा विद्वत्ता के प्रदर्शन के लिए ही करे। नीतिशास्त्र उसे केवल यह बता सकता है कि वास्तविक सुखोपभोग के लिए, जीवन की सार्थक प्राप्ति के लिए कल्याणप्रद नियम कौन से हैं । वह आत्म-प्रबुद्ध व्यक्ति की चेतना को जगाता है, उसे आत्म-सत्य की ओर प्रेरित करता है। आत्म-चेतन व्यक्ति को शुभप्रद नियमों के पालन के हेतु बाध्य करना वह हेय समझता है। यह सच है कि नैतिक सिद्धान्त का जनक जीवन है किन्तु अपनी नियामक शक्ति के कारण वह जीवन का निर्माता तथा पोषक बन जाता है। फिर भी यह प्रत्येक व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपने उचित ज्ञान के अनुरूप अपने आचरण को कितना संयमित करता है, पशु-जीवन से कितना ऊपर उठाता है और उसमें आत्म-पूर्णता को प्राप्त करने की प्रेरणा कितनी तीव्र है।
नीतिशास्त्र और विज्ञान | ४३
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